महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 22-36

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एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद

‘मेनके ! अप्सराओं के जो दिव्य गुण हैं, वे तुममें सबसे अधिक हैं। कल्याणी ! तुम मेरा भला करो और मैं तुमसे जो बात कहता हूं, सुनो वे सूर्य के समान तेजस्वी, महा तपस्वी विश्वामित्र घोर तपस्या में संलग्न हो मेरे मन को कंपित कर रहे हैं। ‘ सुन्दरी मेनके ! उन्हें तपस्या से विचलित करने का यह महान् भार मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूं। विश्वामित्र का अन्तःकरण शुद्व ह उन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है और वे इस समय घोर तपस्या में लगे हैं। ‘ अतः ऐसा करो जिससे वे मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट न कर सकें। तुम उनके पास जाकर उन्हें लुभाओ, उनकी तपस्या मे विघ्न डाल दो और इस प्रकार मेरे विघ्न के निवारण का उत्तम साधन प्रस्तुत करो। ‘वरारोहे ! अपने रूप, जवानी, मधुर स्वाभाव, हावभाव, मंद मुस्कान और सरस वार्तालाप आदि के द्वारा मुनि को लुभाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दो’। मेनका बोली- देवराज ! भगवान विश्वामित्र बड़े भारी तेजस्वी और महान तपस्वी हैं। वे क्रोधी भी बहुत हैं। उनके इस स्वभाव को आप भी जानते हैं। जिन महात्मा के तेज, तप और क्रोध से आप भी उदिग्न हो उठते हैं, उनसे मैं कैसे नहीं डरूंगी? विश्वामित्र ऋषि वे ही हैं जिन्होंने महाभाग महर्षि वशिष्ठ का उनके प्यारे पुत्रों से सदा के लिये वियोग करा दिया; जो पहले क्षत्रीय कुल में उत्पन्न होकर भी तपस्या वल से ब्राह्मण बन गये; जिन्होंने अपने शौच-स्नान की सुविधा के लिये अगाध जल से भरी हुई उस दुर्गम नदी का निर्माण किया, जिसे लोक में सब मनुष्य अत्यन्त पुण्यमयी कौशिकी नदी के नाम से जानते हैं। विश्वामित्र महर्षि वे ही हैं, जिनकी पत्नी को पूर्वकाल में संकट के समय शाप वश व्याध बने हुए धर्मात्मा राजर्षि मतंग ने भरण-पोषण किया था। दुर्भिक्ष बीत जाने पर उन शक्तिशाली मुनि ने पुनः आश्रम पर आकर उस नदी का नाम ‘पारा’ रख दिया था। सुरेश्‍वर ! उन्होंने मतंग मुनि के किये हुए उपकार से प्रसन्न होकर स्वयं पुरोहित बनकर उनका यज्ञ कराया; जिसमें उनके भय से आप भी सोमपान करने के लिये पधारे थे। उन्होंने ही कुपित होकर दूसरे लोक की सृष्टि की नक्षत्र-संपत्ति से रूठ कर प्रतिश्रवण आदि नूतन नक्षत्रों का निर्माण किया था। ये वही महात्मा हैं जिन्होंने गुरू के शाप से हीनावस्था पड़े हुए राजा त्रिषंक को भी शरण दी थी। उस समय यह सोचकर कि ‘विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के शाप को कैसे छुड़ा देंगे?’ देवताओं ने उनकी अवहेलना करके त्रिशंकु के यज्ञ की वह सारी सामग्री नष्ट कर दी। परंतु महातेजस्वी शक्तिशाली विश्वामित्र ने दूसरी यज्ञ-सामग्रियों की सृष्टि कर ली तथा उन महातपस्वी ने त्रिशंकु को स्वर्गलोक में पहुंचा ही दिया। जिनके ऐसे-ऐसे अद्भुत कर्म हैं, उन महात्माओं से मैं बहुत डरती हूं। प्रभु ! जिससे वे कुपित हो मुझे भष्म न कर दें, ऐसे कार्य के लिये मुझे आज्ञा दीजिये। वे अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को भष्म कर सकते हैं, पैर के आघात से पृथ्वी को कंपा सकते हैं, विशाल मेरू पर्वत को छोटा बना सकते हैं और सम्पूर्ण दिशाओं में तुरन्त उलट-फेर कर सकते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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