महाभारत आदि पर्व अध्याय 71 श्लोक 13-21

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एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद

‘षुभे ! तुमने दर्शन मात्र से मेरे मन को हर लिया है। कल्याणि ! मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूं, अतः मुझे सब कुछ ठीक-ठीक बताओ। ‘हाथी की सूंड के समान जांघोवाली मतवाली सुन्दरी ! मेरी बात सुनो; मैं राजर्षि पुरू के वंश में उत्पन्न राजा दुष्यन्त हूं। आज मैं अपनी पत्नी बनाने के लिये तुम्हारा वरण करता हूं। क्षत्रिय कन्या के सिबा दूसरी किसी स्त्री की ओर मेरा मन कभी नहीं जाता। अन्यान्य ऋषिपुत्रियों अपने से भिन्न वर्ण की कुमारियों तथा परायी स्त्रियों की ओर भी मेरे मन की गति नहीं होती। मधुरभाषिणि ! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं अपने मन को पूर्णतः संयम में रखता हूं। ऐसा होने पर भी तुम पर मेरा अनुराग हो रहा है, अतः तुम क्षत्रिय कन्या ही हो। बताओ, तुम कौन हो? भीरू ! ब्राह्मण कन्या की ओर आकृष्ट होना मेरे मन को कदापि सहन् नहीं है। विशाल नेत्रों वाली सुन्दरी ! मैं तुम्हारा भक्त हूं; तुम्हारी सेवा चाहता हूं; तुम मुझे स्वीकार करो। विशाल लोचने ! मेरा राज्य भोगो। मेरे प्रति अन्यथा विचार न करो, मुझे पराया न समझो’। उस आश्रम में राजा के इस प्रकार पूछने पर वह कन्या हंसती हुई मिठास भरे वचनों से उनके इस प्रकार बोली - ‘महाराज दुष्यन्त ! मैं तपस्वी, धृतिमान्, धर्मज्ञ तथा महात्मा भगवान् कण्व की पुत्री मानी जाती हूं। ‘राजेन्द्र ! मैं परतन्त्र हूं। कश्‍यपनन्दन महर्षि कण्व मेरे गुरू और पिता हैं। उन्हीं से आप अपने प्रयोजन की सिद्वि के लिये प्रार्थना करें। आपको अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये’। दुष्यन्त बोले- महाभागे ! विश्‍ववन्द्य कण्व तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं, वे बड़े कठोर व्रत का पालन करते हैं। साक्षात् धर्मराज भी अपने सदाचार से विचलित हो सकते हैं, परंतु महर्षि कण्व नहीं। ऐसी दशा में तुम जैसी सुन्दरी देवी उनकी पुत्री कैसे हो सकती है? इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह हो रहा है। मेरे इस संदेह का निवारण तुम्ही कर सकती हो। शकुन्तला ने कहा - राजन् ! ये सब बातें मुझे जिस प्रकार ज्ञात हुई हैं, मेरा यह जन्म आदि पूर्वकाल में जिस प्रकार हुआ है और मैं जिस प्रकार कण्व मुनि की पुत्री हूं, वह सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता रही हूं; सुनिये। जिसका स्वरूप तो अन्य प्रकार का है, किंतु जो सत्पुरूषों के सामने उसका अन्य प्रकार से ही परिचय देता है, अर्थात् जो पापात्मा होते हुए भी अपने को धर्मात्मा कहता है, वह मूर्ख, पाप से आवृत, चोर एवं आत्मवन्चक है । पृथ्वीपते ! एक दिन किसी ऋषि ने यहां आकर मेरे जन्म के सम्बन्ध में मुनि से पूछा- ‘कश्‍यपनन्दन ! आप तो ऊध्र्वरेता ब्रह्मचारी हैं, फिर यह शकुन्तला कहां से आयी? आपसे पुत्री का जन्म कैसे हुआ? यह मुझे सच-सच बताईये।’ उस समय भगवान् कण्व ने उससे जो बात बतायी, वही कहती हूं, सुनिये। कण्व बोले - पहले की बात है, महर्षि विश्वामित्र बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उन्होंने देवताओं के स्वामी इन्द्र को अपनी तपस्या से अत्यन्त संताप में डाल दिया। इन्द्र को यह भय हो गया कि तपस्या से अधिक शक्ति-शाली होकर ये विश्वामित्र मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट कर देंगे, अतः उन्होंने मेनका से इस प्रकार कहा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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