श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 14-23

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प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः (19)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित् का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन

मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेह में आसक्त रहने के कारण मैं भी पाप रूप ही हो गया हूँ। इसी से स्वयं भगवान ही ब्राम्हण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करने वाला है। क्योंकि इस प्रकार के शाप से संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं । ब्राम्हणों! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आप लोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझ पर अनुग्रह करें, ब्राम्हण कुमार के शाप से प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले; इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है। आप लोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओं का गायन करें । मैं आप ब्राम्हणों के चरणों में प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में में जन्म लेना पड़े, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये । महाराज परीक्षित् परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजी के दक्षिण तट पर पूर्वाग्र कुशों एक आसन पर उत्तर मुख होकर बैठ गये। राज-काज का भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया था । पृथ्वी एक एकच्छत्र सम्राट् परीक्षित् जब इस प्रकार आमरण अनशन का निश्चय करके बैठ गये, तब आकाश में स्थित देवता लोग बड़े आनन्द से उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार-बार बजने लगे । सभी उपस्थित महर्षियों ने परीक्षित् के निश्चय की प्रशंसा की और ‘साधु-साधु’ कहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषि लोग तो स्वभाव से ही लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी सारी शक्ति लोक पर कृपा करने के लिये ही होती है। उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण के गुणों से प्रभावित परीक्षित् के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे । ‘राजर्षिशिरोमणे! भगवान श्रीकृष्ण के सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियों के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आप लोगों ने भगवान की सन्निधि प्राप्त करने की आकांक्षा से उस राजसिंहासन का एक क्षण में ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े-बड़े राजा अपने मुकुटों से करते थे । हम सब तब तक यहीं रहेंगे, जब तक ये भगवान के परम भक्त परीक्षित् अपने नश्वर शरीर को छोड़कर माया दोष एवं शोक से रहित भगवद्धाम में नहीं चले जाते’। ऋषियों के ये वचन बड़े ही मधुर, गम्भीर, सत्य और समता से युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित् ने उन योगयुक्त मुनियों का अभिनन्दन किया और भगवान के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषियों से प्रार्थना की । ‘महात्माओं! आप सभी सब ओर से यहाँ पधारे हैं। आप सत्य लोक में रहने वाले मूर्तिमान् वेदों के समान हैं। आप लोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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