श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 12-22

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द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद
ब्रम्हाजी का भगवद्धाम दर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश

जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैस ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता है । उस वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान् की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुण-गान करने लगते हैं । ब्रम्हाजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं । उनका मुख कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त हैं। आँखों में लाल-लाल डोरियों हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे। सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं । वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छः नित्य सिद्ध स्वरुपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरुप में ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं । उनका दर्शन करते ही ब्रम्हाजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रम्हाजी ने भगवान् के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्ति मार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया । ब्रम्हाजी के प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रम्हाको प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रम्हाजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहा— श्रीभगवान् ने कहा—ब्रम्हाजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते । तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लग। क्योंकि मैं मुँह माँगी वस्तु देने में समर्थ हूँ। ब्रम्हाजी! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम—पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है । तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसी से मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है । तुम उस समय सृष्टि रचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसी से मैंने तुम्हें तपस्या मेरा करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप! तपस्या मेरा ह्रदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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