श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 39 श्लोक 14-22

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दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः (39) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंशोऽध्यायः श्लोक14-22 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा जाने की बात सुनते ही बहुतों के ह्रदय में ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखमकल कुम्हला गया। और बहुतों की ऐसी दशा हुई—वे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ों तक का पता न रहा । भगवान के स्वरुप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों की चित्तवृतियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थ—आत्मा में स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसार का कुछ ध्यान ही न रहा । बहुत-सी गोपियों के सामने भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुसकान और ह्रदय को स्पर्श करने वाली विचित्र पदों से युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं । गोपियाँ मन-ही-मन भगवान की लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकों को मिटा देने वाली ठिठोलियाँ तथा उदारता-भरी लीलाओं का चिन्तन करने लगीं और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं। उनका ह्रदय, उनका जीवन—सब कुछ भगवान के प्रति समर्पित था। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। वे झुंड-के-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ।

गोपियों ने कहा—धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे ह्रदय में दया का लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेम से जगत् के प्राणियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपस में एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चों के खेल की तरह व्यर्थ ही है । यह कितने दुःख की बात है! विधाता! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करने वाले श्यामसुन्दर का मुखमकल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलों पर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोते की चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरों पर मन्द-मन्द मुसकान की सुन्दर रेखा, जो सारे शोकों को तत्क्षण भगा देती है। विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रह हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है । हम जानती हैं, इसमें अक्रूर का दोष नहीं है; यह तो साफ़ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्ख की भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दर के एक-एक अंग में तुम्हारी सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ।

अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर को भी नये-नये लोगों से नेह लगाने की चाट पड़ गयी है। देखो तो सही—इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया ? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदि को छोड़कर इनकी दासीं बनीं और इन्हीं के लिये आज हमारा ह्रदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखते तक नहीं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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