श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 40-48

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दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 40-48 का हिन्दी अनुवाद

प्यारे श्यामसुन्दर! तीनों लोकों में भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रम से विविध प्रकार की मूर्च्छानाओं से युक्त तुम्हारी वंशी की तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्ति को—जो अपने एक बूँद सौन्दर्य से त्रिलोकी को सौन्दर्य का दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हरिन भी रोमांचित, पुलकित हो जाते हैं—अपने नेत्रों से निहारकर आर्य-मर्यादा से विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोकलज्जा को त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय । हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान नारायण देवताओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिये ही प्रकट हुए हो! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीनं-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है। प्रियतम! हम भी बड़ी दुःखिन हैं। तुम्हारे मिलन की आकांक्षा की आग से हमारा वक्षःस्थल जल रहा है। तुम अपनी इन दासियों के वक्षःस्थल और सिरपर अपने कोमल करकमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियो और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। जब उन्होंने गोपियों की व्यथा और व्याकुलता से भरी वाणी सुनी, तब उनका ह्रदय दया से भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं—अपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की । भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भंगी और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दीं; फिर भी वे अपने स्वरुप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उज्जवल-उज्जवल दाँत कुंदकली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेमभरी चितवन से और उनके दर्शन के आनन्द से गोपियों का मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें चारों और से घेरकर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा हुई, मानो अपनी पत्नी तारिकाओं से घिरे हुए चन्द्रमा ही हों । गोपियों के शत-शत यूथों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहले वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगते । इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ यमुनाजी के पावन पुलिनपर, जो कपूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया। वह यमुनाजी की तरंल तरंगों के स्पर्श के शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगन्ध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनन्दप्रद पुलिन पर भगवान ने गोपियों के साथ क्रीडा की । हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी और स्तन आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नखक्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुसकाना—इन क्रियाओं के द्वारा गोपियों के दिव्य कामरस को, परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडाद्वारा आनन्दित करने लगे । उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है। वे कुछ मानवती हो गयीं । जब भगवान ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करने के लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिये वहीँ—उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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