श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-13

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तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

ब्रम्हाजी की उत्पत्ति

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पुरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधु-पुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य है! आप निरन्तर पद-पद पर श्रीहरि की कीर्तिमयी माला को नित्य नूतन बना रहे हैं। अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान् दुःख को मोल लेने वाले पुरुषों की दुःख निवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवत पुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं श्रीसंकर्षण भगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था। अखण्ड ज्ञान सम्पन्न आदि देव भगवान् संकर्षण पाताल लोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रम्ह का तत्व जानने के लिए उनसे प्रश्न किया। उस समय शेषजी अपने आश्रय-स्वरुप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश सरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करने पर सनत्कुमारादि ज्ञानी जनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटा समूह से उनके चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराज कुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं। सनत्कुमारादि उनकी लीला के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया। उस समय शेष भगवान् के उठे हुए सहस्त्रों फण किरीटों की सहस्त्र-सहस्त्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे।
भगवान् संकर्षण ने निवृत्ति परायण सनत्कुमारजी को यह भागवत सुनाया तथा—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करने पर सुनाया। परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायनजी को जब भगवान् की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को और बृहस्पतिजी को सुनाया। इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कहने से वह आदि पुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ। सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेष शय्या पर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञान शक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्रा का आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टि कर्म से अवकाश लेकर आत्मानन्द में मग्न थे। उनमें किसी भी क्रिया का उन्मेष नहीं था। जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियों को छिपाये हुए काष्ठ में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधार भूत उस जल में शयन किया, उन्हें सृष्टि काल आने पर पुनः जगाने के लिये केवल काल शक्ति को जाग्रत् रखा। इस प्रकार अपनी स्वरुपभूता चिच्छिक्ति के साथ एक सहस्त्र चतुर्युग पर्यन्त जल में शयन करने के अनन्तर जब उन्हीं के द्वारा नियुक्त उनको काल शक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोक देखे। जिस समय भगवान् की दृष्टि अपने में निहित लिंग शरीरादि सूक्ष्म तत्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टि रचना के निमित्त उनके नाभि देश से बाहर निकला।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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