श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 12-23

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकादश स्कन्ध : एकोनविंशोऽध्यायः (19)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद


जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियों के संहार से शोक विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामह से बहुत-से धर्मों का विवरण सुनने के पश्चात् मोक्ष के साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न किया था । उस समय भीष्मपितामह के मुख से सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाउँगा; क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्ति के भावों से परिपूर्ण हैं । उद्धवजी! जिस ज्ञान से प्रकृति, पुरुष, महतत्व,, अहंकार और पंच-तन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेद्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्वों को ब्रम्हा से लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्यों में देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्व को अनुगत रूप से देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है । जब जिस एक तत्व से अनुगत एकात्मक तत्वों को पहले देखता था, उनको पहले के समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रम्ह को ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त करने की युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का विचार करे । जो तत्व वस्तु सृष्टि के प्रारम्भ में और अन्त में कारण रूप से स्थित रहती है, वही मध्य में भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्य से प्रतीयमान कार्यान्तर में अनुगत भी होती है। फिर उन कार्यों का प्रलय अथवा बाध होने पर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूप से शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे । श्रुति, प्रत्यक्ष, एतिह्य (महापुरुषों में प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणों में यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटी पर कसने से दृश्य प्रपंच अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होने के कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपंच से विरक्त हो जाता है । विवेकी पुरुष को चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देने वाले यज्ञादि कर्मों के परिणामी—नश्वर होने के कारण ब्रम्हलोक पर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय—सुख के समान ही अमंगल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे । निष्पाप उद्धवजी! भक्तियोग का वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिर से भक्ति प्राप्त होने का श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ । जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामों का सकीर्तन करे; मेरी पूजा में अत्यन्त निष्ठा रखे और स्त्रोतों के द्वारा मेरी स्तुति करे । मेरी सेवा-पूजा में प्रेम रखे और सामने साष्टांग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से बढ़कर करे और समस्त प्राणियों में मुझे ही देखे । अपने एक-एक अंग की चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणी से मेरे ही गुणों का गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे । मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुख का भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-