श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 14-21

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एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद


प्यारे उद्धव! यदि तुम कदाचित् कर्मों के कर्ता और सुख-दुःखों के भोक्ता जीवों का अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओं को नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह से नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घर-घट आदि बाह्य आकृतियों के भेद से उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मत के मानने से बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत् के कर्ता आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसी स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवों के सम्बन्ध से होने वाली जीवों की जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होने के कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मों का कर्ता तथा सुख-दुःख का भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःख का फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोग की समस्या सुलझ जाने पर भी दुःख-भोग की समस्या तो उलझी हो रहेगी। अतः इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी। अब जीव स्वरुपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वन्चित रह जायगा । (यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है । यदि वह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुख की प्राप्ति और दुःख के नाश का ठीक-ठाक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं । जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस मनुष्य को फाँसी पर लटकाने के लिये वध स्थान पर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत मानने वालों की दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा) । प्यारे उद्धव! लौकिक सुख के समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरी वालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने-वालों के प्रति असूया होती है—उनके गुणों में दोष निकाला जाता है और छोटों से घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने के साथ ही वहाँ के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँ की कामना पूर्ण होने में भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े-बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि के कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नों के कारण नहीं मिल पाता ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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