महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 9 श्लोक 37-63

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नवम (9) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व:नवम अध्याय: श्लोक 37-63 का हिन्दी अनुवाद

आपके ही प्रसाद से मित्रों और बन्धु बान्धवों सहित हम लोगों ने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक मुख्य मुख्य यज्ञों का अनुष्ठान किया है । महाराज ! आप जिस भाव से समस्त राजाओं को आगे करके स्वर्ग सिधार रहे है, हम पापी ऐसा भाव कहां से ला सकेगे ? । राजन् परम गति को जाते समय आपके पीछे पीछे जो हम तीनों भी नहीं चल रहे हैं, इसके कारण हम स्वर्ग और अर्थ दोनों से वन्चित हो आपके सुकृतों का स्मरण करते हुए दिनरात शोकाग्नि में जलते रहेगे । कुरूश्रेष्ठ ! न जाने वह कौन सा कर्म है, जिससे विवश होकर हम आपके साथ नहीं चल रहे हैं। निश्चय ही इस पृथ्वी पर हमें निरन्तर दुःख भोगना पडे़गा । महाराज ! आपसे बिछुड जानेपर हमें शान्ति और सुख कैसे मिल सकते है? राजन् ! स्वर्ग में जाकर सब महारथियों से मिलने पर आप मेरी ओर से बडे़ छोटे के कम से उन सबका आदर सत्कार करें । नरेश्वर ! फिर सम्पूर्ण धनुर्धरों के ध्वजस्वरूप आचार्य का पूजन करके उनसे कह दे कि आज अश्वत्थामा के द्वारा धृष्टद्युम्न मार डाला गया । महारथी राजा बाहिक, सिन्धुराज जयद्रथ, सोमदत तथा भूरिश्रवा का भी आप मेरी ओर से आलिंगन करे । दूसरे-दूसरे भी जो नृपश्रेष्‍ठ पहले से ही स्वर्गलोक में जा पहुंचे है, उन सबकों मेरे कथनानुसार हृदय से लगाकर उनकी कुशल पूछे । संजय कहते हैं- महाराज ! जिसकी जाँघें टूट गयी थीं, उस अचेत पडे़ हुए राजा दुर्योधन से ऐसा कहकर अश्वत्थामा ने पुनः उसकी ओर देखा और इस प्रकार कहा-। राजा दुर्योधन! यदि आप जीवित हों तो यह कानों- को सुख देने वाली बात सुनें । पाण्डवपक्ष में केवल सात और कौरव पक्ष में सिर्फ हम तीन ही व्यक्ति बच गये है । उधर तो पाँचों भाई पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि बचे है और इधर मैं, कृतवर्मा तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य शेष रह गये है । भरतनन्दन ! द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न के सभी पुत्र मारे गये, समस्त पान्चालों का संहार कर दिया गया और मत्स्य देश की अवशिष्ट सेना भी समाप्त हो गयी । राजन् ! देखिये, शत्रुओं की करनी का कैसा बदला चुकाया गया ? पाण्डवों के भी सारे पुत्र मार डाले गये। रात में सोते समय मनुष्यों और वाहनों सहित उनके सारे शिविर का नाश कर दिया गया । भूपाल ! मैने स्वयं रात के समय शिविर में घुसकर पापाचारी धृष्टद्युम्न को पशुओं की तरह गला घोंट-घोटकर मार डाला है । यह मन को प्रिय लगने वाली बात सुनकर दुर्योधन को पुनः होश आ गया और वह इस प्रकार बोला- । मित्रवर ! आज आचार्य कृप और कृतवर्मा के साथ तुमने जो कार्य कर दिखाया है, उसे न गंगानन्दन भीष्म, न कर्ण और न तुम्हारे पिताजी ही कर सके थे। शिखण्डी सहित वह नीच सेनापति धृष्टद्युम्न मार डाला गया, इससे आज निश्चय ही मैं अपने को इन्द्र के समान समझता हूं । तुम सब लोगों का कल्याण हो ! तुम्हें सुख प्राप्त हो। अब स्वर्ग में ही हम लोगों का पुनर्मिलन होगा। ऐसा कहकर महामनस्वी वीर कुरूराज दुर्योधन चुप हो गया और अपने सुहृदों के लिये दुःख छोड़कर उसने अपने प्राण त्याग दिये। वह स्वयं तो पुण्यधाम स्वर्गलोक में चला गया; किंतु उसका पार्थिव शरीर इस पृथ्वी पर ही पडा रह गया । नरेश्वर ! इस प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन मृत्यु को प्राप्त हुआ । वह समरांगण में सबसे पहले गया था और सबसे पीछे शत्रुओं द्वारा मारा गया । मरने से पहले दुर्योधन ने तीनों वीरों को गले लगाया और उन तीनों ने भी राजा को हृदय से लगाकर विदा दी, फिर वे बार बार उसकी ओर देखते हुए अपने अपने रथों पर सवार हो गये । इस प्रकार द्रोणपुत्र के मुख से वह करूणाजनक समाचार सुनकर मैं शोक से व्याकुल हो उठा और प्रातःकाल नगर की ओर दौडा चला आया । राजन् ! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणा के अनुसार कौरवों तथा पाण्डवों की सेनाओं का यह घोर एवं भयंकर विनाशकार्य सम्पन्न हुआ है । निष्पाप नरेश ! आपके पुत्र के स्वर्गलोक में चले जाने से मै शोक से आतुर हो गया हूं और महर्षि व्यासजी की दी हुई मेरी वह दिव्य दृष्टि भी अब नष्ट हो गयी है । वैशम्पायनजी कहते है- राजन् इस प्रकार अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र गरम गरम लंबी साँस खींचकर गहरी चिन्ता में डूब गये । इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में दुर्योधन का प्राणत्यागविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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