महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 21-41

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द्वाद्वश (12) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व:द्वाद्वश अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

मैंने भी कह दिया - ले लो चक्र, मेरे इतना कहते ही उसने सहसा उछलकर बायें हाथ से चक्र को पकड़ लिया । परंतु वह उसे अपनी जगह से हिला भी न सका । तब उसने उसे दाहिने हाथ से उठाने का प्रयत्न प्रारम्भ किया । सारा प्रयत्न और सारी शक्ति लगाकर भी जब उसे पकडकर उठा अथवा हिला न सका, तब द्रोणकुमार मन ही मन बहुत दुखी हो गया । भारत ! यत्न करके थक जाने पर वह उसे लेने की चेष्टा से निवृत्‍त हो गया । जब उस संकल्प से उसका मन हट गया और वह दुःख से अचेत एवं उद्विग्न हो गया, तब मैंने अश्वत्थामा को बुलाकर पूछा- । ब्रह्मन् ! जो मनुष्य समाज में सदा ही परम प्रामाणिक समझे जाते हैं, जिनके पास गाण्डीव धनुष और श्वेत घोडे है, जिनकी ध्वजा पर श्रेष्ठ वानर विराजमान होता है, जिन्‍होंने द्वन्दयुद्ध में साक्षात् देवदेवेश्वर नीलकण्ठ उमावल्लम भगवान् शंकर को पराजित करने का साहस करके उन्हें संतुष्ट किया था, इस भूमण्डल में मुझे जिनसे बढकर परम प्रिय दूसरा कोई मनुष्य कर्म करने वाले मेरे पास स्त्री, पुत्र आदि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो देने योग्य न हो, अनायास ही महान् कर्म करने वाले मेरे उस प्रिय सृदृढ़ कुन्तीकुमार अर्जुन ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं की थी, जो आज तुम मुझसे कह रहे हो । मूढ़ ब्राह्मण ! मैंने बारह वर्षो तक अत्यन्त घोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके हिमालय की घाटी में रहकर बड़ी भारी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रूक्मिणीदेवी के गर्भ से जिसका जन्‍म हुआ है, जिसके रूप में साक्षात् तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहां अवतार लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय पुत्र है । परंतु रणभूमि में जिसकी कही तुलना नहीं है, मेरे इस परम दिव्य चक्र को कभी उस प्रद्युम्न ने भी नहीं माँगा था, जिसकी आज तुमने माँग की है । अत्यन्त बलशाली बलरामजी ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं कही है । जिसे तुमने माँगा है, उसे गद और साम्बने भी कभी लेने की इच्छा नहीं की । द्वारका में निवास करने वाले जो अन्य वृष्णि तथा अन्धकवंश के महारथी है, उन्‍होंने भी कभी मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव नहीं किया था, जैसा कि तुमने इस चक्र को माँगते हुए किया है । तात ! रथियों में श्रेष्ठ ! तुम तो भरतकुल के आचार्य के पुत्र हो । सम्पूर्ण यादवों ने तुम्‍हारा बड़ा सम्मान किया है । फिर बताओ तो सही, इस चक्र के द्वारा तुम किसके साथ युद्ध करना चाहते हो ? । जब मैंने इस तरह पूछा, तब द्रोणकुमार ने मुझे इस प्रकार उत्‍तर दिया- श्रीकृष्ण ! मैं आपकी पूजा करके फिर आपके ही साथ युद्ध करूँगा । प्रभो ! मैं यह सच कहता हूँ कि मैंने इस देव दानवपूजित चक्र को आप से इसीलिये माँगा था कि इसे पाकर अजेय हो जाऊँ । किंतु केशव ! अब मैं अपनी इस दुर्लभ कामना को आपसे प्राप्त किये बिना ही लौट जाऊँगा । गोविन्द ! आप मुझसे केवल इतना कह दे कि तेरा कल्याण हो । यह चक्र अत्यन्‍त भयंकर है और आप भी भचानक वीरों के शिरोमणि है । आपके किसी विरोधी के पास ऐसा चक्र नहीं है । आपने ही इसे धारण कर रखा है । इस भूतल पर दूसरा कोई पुरूष इसे नहीं उठा सकता । मुझसे इतना ही कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा रथ में जोतने योग्य घोडे़, धन तथा नाना प्रकार के रत्न लेकर वहाँ से यथासमय लौट गया । वह क्रोधी, दुष्टात्मा, चपल और क्रुर है । साथ ही उसे ब्रह्मस्त्र का भी ज्ञान है, अतः उससे भीमसेन की रक्षा करनी चाहिये ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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