महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 17-31

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दशम (10) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व:दशम अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

द्रोणाचार्य महासागर के समान थे, रथ ही पानी का कुण्ड था, बाणों की वर्षा ही लहरों के समान ऊपर उठती थी, रत्नमय आभूषण ही उस द्रोणरूपी समुद्र के रत्न थे, रथ के घोडे़ ही समुद्री घोडों के समान जान पड़ते थे, शक्ति और ऋष्टि मत्स्य के समान तथा ध्वज नाग एवं मगर के तुल्य थे, धनुष ही भंवर तथा बडे़ बडे़ बाण ही फेन थे, संग्राम ही चन्द्रोदय बनकर उस समुद्र के बेग को चरम सीमा तक पहुंचा देता था, प्रत्यन्चा और पहियों की ध्वनि ही उस महासागर की गर्जना थी, ऐसे द्रोणरूपी सागर को जो छोटे बडे़ नाना प्रकार के शस्त्रों की नौका बनाकर पार गये, वे ही राजकुमार असावधानी से मार डाले गये। प्रमाद से बढकर इस संसार में मनुष्यों के लिये दूसरी कोई मृत्यु नहीं । प्रमादी मनुष्य को सारे अर्थ सब ओर से त्याग देते है और अनर्थ बिना बुलाये ही उसके पास चले आते है । महासमर में भीष्मरूपी अग्नि जब पाण्डव सेना को जला रही थी, उस समय ऊँची ध्वजाओं के शिखर पर फहराती हुई पताका ही धूम के समान जान पड़ती थी, बाणवर्षा ही आग की लपटें थी, क्रोध ही प्रचण्ड वायु बनकर उस ज्वाला को बढा रहा था, कवच और नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र उस आग की आहुति बन रहे थे, विशाल सेनारूपी सूखे जंगल में दावानल के समान वह आग लगी थी, हाथ में लिये हुए अस्त्र शस्त्र ही उस अग्नि के प्रचण्ड वेग थे, ऐसे अग्निदाह के कष्ट को जिन्‍होंने सह लिया, वे ही राजपुत्र प्रमादवश मारे गये । प्रमादी मनुष्य कभी विद्या, तप, वैभव अथवा महान् यश नहीं प्राप्त कर सकता । देखो, देवराज इन्द्र प्रमाद छोड़ देने के ही कारण अपने सारे शत्रुओं का संहार करके सुखपूर्वक उन्‍नति कर रहे है । देखो, प्रमाद के ही कारण ये इन्द्र के समान पराक्रमी, राजाओं के पुत्र और पौत्र सामान्य रूप से मार डाले गये, जैसे समृद्धिशाली व्यापारी समुद्र को पार करके प्रमादवश अवहेलना करने के कारण छोटी सी नदी में डूब गये हो । शत्रुओं ने अमर्ष के वशीभूत होकर जिन्‍हें सोते समय ही मार डाला है वे तो निःसंदेह स्वर्गलोक में पहुंच गये हैं । मुझे तो उस सती साध्वी कृष्णा के लिये चिन्ता हो रही है जो आज शोक के समुद्र में डूबकर नष्ट हो जाने की स्थिति में पहुंच गयी है । एक तो पहले से ही शोक के कारण क्षीण होकर उसकी देह सूखी लकडी के समान हो गयी है ? दूसरे फिर जब वह अपने भाईयों, पुत्रों तथा बूढे़ पिता पान्चालराज द्रुपद की मृत्यु का समाचार सुनेगी तब और भी सूख जायेगी तथा अवश्य ही अचेक होकर पृथ्वी पर गिर पडे़गी । जो सदा सुख भोगने के ही योग्य है, वह उस शोकजनित दुःख को न सह सकने के कारण न जाने कैसी दशा को पहुंच जायगी ? पुत्रों और भाईयों के विनाश से व्यथित हो उसके हृदय में जो शोक की आग जल उठेगी, उससे उसकी बडी शोचनीय दशा हो जायेगी । इस प्रकार आर्तस्वर से विलाप करते हुए कुरूराज युधिष्ठिर ने नकुल से कहा- भाई ! जाओ, मन्दभागिनी राजकुमारी द्रौपदी को उसके मातृपक्ष की स्त्रियों के साथ यहां लिया लाओ । माद्रीकुमार नकुल ने धर्माचरण के द्वारा साक्षात धर्मराज की समानता करने वाले राजा युधिष्ठिर आज्ञा शिरोधार्य करके रथ के द्वारा तुरंत ही महारानी द्रौपदी के उस भवन की ओर प्रस्थान किया, जहां पान्चालराज के घर की भी महिलाएं रहती थी । माद्रीकुमार को वहां भेजकर अजमीढ कुलनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल हो उन सभी सुदृढों के साथ बारंबार रोते हुए पुत्रों के उस युद्धस्थल में गये, जो भूतगणों से भरा हुआ था । उस भयंकर एवं अमंगलमय स्थान में प्रवेश करके उन्होंने अपने पुत्रों, सुदृढों और सखाओं को देखा, तो खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पडे़ थे । उनके शरीर छिन्न् भिन्न् हो गये थे और मस्तक कट गये थे । उन्‍हें देखकर कुरूकुलशिरोमणि तथा धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुखी हो गये और उच्चस्वर से फूट फूटकर रोने लगे। धीरे धीरे उनकी संज्ञा लुप्त हो गयी और वे अपने साथियों सहित पृथ्वी पर गिर पडे़।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में युधिष्ठिर का शिविर में प्रवेशविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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