महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 81 श्लोक 12-25

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एकाशीतितम (81) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद

नारद जी ! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हू। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाईयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें। नारद जी ने कहा-वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण ! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-एक बाह्य और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत[१] और परकृत[२]-भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आपको प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतोंसे प्रकट हुई है। ये सभी जिसके नाम आपने गिनाये हैं, आपने ही वंश के हैं। आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था उसे किसी प्रयोजनवश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। सहायशाली श्रीकृष्ण! इस समय उग्रसेन के दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढमूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अतः उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। श्रीकृष्ण अक्रुर और उग्रसेन के अधिकार में गये हुए राज्य को भाई-बन्धुओं मे फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वंय भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परंतु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुनः विनाश होगा। अतः श्रीकृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्रसे, जो लोहे का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डाल ने में समर्थ है, परिमार्जन[३] और अनुमार्जन[४] करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें-उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो)। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्ना को उखाड़ लूँ। नरद जी ने कहा-श्रीकृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना-यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र हैं। ज्ब सजातीय बन्धु आपके प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें,उस समय आप मधुर वचन बोलकर उसके हृदय, वाणी तथा मनको शान्त कर दें। जो महापुरूष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सम्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अतः आप ही इस गुरूतर भार को हद्य से उठाकर वहन करें। समतल भूमि पर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते है; परंतु दुर्गम भूमि पर कठिनाईयों से वहन कर लेते है परन्तु दुर्गम भूमिपर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरूतर भार को अच्छे बैल ही ढोते है। केशव! आप इस यादव संघ के मुखिया है यदि इसमें फुट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा अतः आप ऐसा करें जिससे आपको पाकर इस संघ का -इस यादव गणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो आपत्तियाँ स्वतः अपने ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।
  2. जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती हैं।
  3. क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना परिमार्जन कहलाता है।
  4. यथायोग्य सेवा सत्कार के द्वारा हद्य में प्रीति उत्पन्न करना, अनुमार्जन कहा गया है।

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