महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 63 श्लोक 15-30

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त्रिषष्टिम (63) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिषष्टिम अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद

अपने वर्णधर्म का परिश्रमपूर्वक पालन करके कृतकृत्य हुआ वैश्य अधिक अवस्था व्यतीत हो जाने पर राजाकी आज्ञा लेकर क्षत्रियोचित वानप्रस्थ आश्रमों का ग्रहण करे। निष्पाप नरेश ! राजाको चाहिये कि पहले धर्माचरणपूर्वक वेदों तथा राजशास्त्रों का अध्ययन करे। फिर संतानोत्पादन आदि कर्म करके यज्ञ में सोमरस का सेवन करे। समस्त प्रजाओं का धर्म के अनुसार पालन करके राजसूय, अश्वमेध तथा दूसरे-दूसरे यज्ञों का अनुष्ठान करे। शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार सब सामग्री एकत्र करके ब्राह्णों को दक्षिणा दे। संग्राम में अल्प या महान् विजय पाकर राज्य पर प्रजाकी रक्षा के लिये अपने पुत्रको स्थापित कर दे। पुत्र न हो तो दूसरे गोत्र के किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर दे। वक्ताओंमें श्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि पाण्डुनन्दन! पितृयज्ञों द्वारा विधिपूर्वक पितरों का, देवयज्ञोंद्वारा देवताओंका तथा वेदों के स्वाध्यायद्वारा ऋषियोंका यत्नपूर्वक भलीभाँति पूजन करके अन्तकाल आने पर जो क्षत्रिय दूसरे आश्रमोंको ग्रहण करनेकी इच्छा करता है, वह क्रमशः आश्रमों को अपनाकर पनम सिद्धि को प्राप्त होता है। गृहस्थ-धर्मोंका त्याग कर देनेपर भी क्षत्रियको ऋषिभाव से वेदान्तश्रवण आदि संन्यास-धर्मका पालन करते हुए जीवनरक्षाके लिये ही भिक्षाका आश्रय लेना चाहिये, सेवा करानेके लिये नहीं। पर्याप्त दक्षिणा देनेवाला राजसिंह ! यह भैक्ष्यचर्या क्षत्रिय आदि तीन वर्णों के लिये नित्य या अनिवार्य कर्म नहीं है। चारों आश्रमवासियोंका कर्म उनके लिये ऐच्छिक ही बताया गया है। राजन् ! राजधर्म बाहुबल के अधीन होता है। वह क्षत्रिय के लिये जगत्का श्रेष्ठतम धर्म है, उसका सेवन करने वाले क्षत्रिय मानवमात्र की रक्षा करते हैं। अतः तीनों वर्णों के उपधर्मों सहित जो अन्यान्य समस्त धर्म हैं। वे राजधर्म से ही सुरक्षित रह सकते हैं, यह मैंने वेद-शास्त्रसे सुना है। नरेश्वर! जैसे हाथी के पदचिन्ह में सभी प्राणियों के पदचिन्ह विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मोंको सभी अवस्थाओं में राजधर्मके भीतर ही समविष्ट हुआ समझो। धर्म के ज्ञाता आर्य पुरूषों का कथन है कि अन्य समस्त धर्मों का आश्रय तो अल्प है ही, फल भी अल्प ही है। परंतु क्षात्रधर्म का आश्रय भी महान् है और उसके फल भी बहुसंख्यक एवं परमकल्याणरूप हैं, अतः इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन् ! राजधर्मों में सभी प्रकारके त्यागका समावेश है और ऋषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं। यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातल की चले जायँ और वेदोंके नष्ट होनेसे समाजमें प्रचलित हुए सारे धर्मों का नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमोंके सम्पूर्ण धर्मोंका ही लोप हो जायगा। राजा के धर्मों में सारे त्यागों का दर्शन होता है, राजधर्मोंमें सारी दीक्षाओंका प्रतिपादन हो जाता है, राजधर्मों में सम्पूर्ण विद्याओंका संयोग सुलभ है तथा राजधर्ममें सम्पूर्ण लोकों का समावेश हो जाता है। व्याध आदि नीच प्रकृति के मनुष्यों द्वारा मारे जाते हुए पशु-पक्षी आदि जीव जिस प्रकार घातक के धर्म का विनाश करने वाले होते हैं, उसी प्रकार धर्मात्मा पुरूष यदि राजधर्मसे रहित हो जायँ तो धर्मका अनुसंधान करते हुए भी वे चोर-डाकुओंके उत्पातसे स्वधर्मके प्रति आदरका भाव नहीं रख पाते हैं और इस प्रकार जगत्की हानिमें कारण बन जाते हैं (अतः राजधर्म सबसे श्रेष्ठ है)।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में वर्णाश्रमर्ध का वर्णनविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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