महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-16

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षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद, श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा और युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश

युधिष्ठिर ने पूछा - अमित पराक्रमी, जगत् के आश्रयदाता पुरुषोत्तम ! आप यह किसका ध्यान कर रहे हैं ? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। इस त्रिलोकी का कुशल तो है न ? आप तो जाग्रत, स्वप्न, सुषुपित - तीनों अवस्थाओं से परे तुरीय ध्यान मार्ग का आश्रय लेकर स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों ये ऊपर उठ गये हैं। इससे मेरे मन को बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपके शरीर में रहने वाली श्वास-प्रश्वास आदि पाँच कर्म करने वाली प्राणवायु अवरुद्ध हो गयी है। आपने अपनी प्रसन्न इन्द्रियों को मन में स्थापित कर दिया है। गोविन्द ! मन तथा वाक् आदि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ आपके द्वारा बुद्धि में लीन कर दी गयी हैं। समस्त गुणों को और इन्द्रियों के अनुग्राहक देवताओं को आपने क्षेत्रज्ञ आतमा में स्थापित कर दिया है। आपके रोंगटे खडत्रे हो गये हैं। जरा भी हिलते नहीं हैं। बुद्धि तथा मन भी स्थिर हैं। माधव ! आप काठ, दीवार और पत्थर की तरह निष्चेष्ट हो गये हैं। भगवन् ! देवदेव ! जैसे वायुशून्य स्थान में रखे हुए दीपक की लौ काँपती नहीं, एकतार जलती रहती है, उसी तरह आप भी स्थिर हैं मानो पाषाण की मूर्ति हों।। देव ! यदि मैं सुनने का अधिकारी होऊँ और यदि यह आपका कोई गोपनीय रहस्य न हो तो मेरे इस संशय का निवारण कीजिये, इसके लिये मैं आपकी शरण में आकर बारंबार याचना करता हूँ। पुरुषोत्तम ! आप ही इस जगत् को बनाने और विलीन करने वाले हैं। आप ही क्षर और अक्षर पुरुष हैं। आपका न आदि है और न अन्त। आप ही सबके आदि कारण हैं। मैं आपकी शरण में आया हुआ भक्त हूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ प्रभो ! इस ध्यान का यथार्थ तत्त्व मुझे बता दीजिये।। युधिष्ठिर की यह प्रार्थना सुनकर मन, बुद्धि तथा ध्यानमग्न श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर प्रश्न पूछ रहे हैं
इन्द्रियों को अपने स्थान में स्थापित करके इन्द्र के छोटे भाई भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए इस प्रकार बोले। श्री कृष्ण ने कहा - राजन् ! बाण-शय्या पर पड़े हुए पुरुषसिंह भीष्म, जो इस समय बुझती हुई आग के समान हो रहे हैं, मेरा ध्यान कर रहे हैं; इयलिये मेरा मन उन्हीं में लगा हुआ है। बिजली की गड़गड़ाहट के समान जिनके धनुष की टंकार को देवराज इन्द्र भी नहीं सह सके थे, उन्हीं भीष्म के चिन्तन मेें मेरा मन लगा हुआ है। जिन्होंने काशीपुरी में समसत राजाओं के समुदाय को वेगपूर्वक परास्त करके काशिराज की तीनों कन्याओं का अपहरण किया था, उन्हीं भीष्म के पास मेरा मन चला गया है। जो लगातार तेईस दिनों तक भृगुनन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध करते रहे, तो भी परशुरामजी जिन्हें परास्त न कर सके, उन्हीं भीष्म के पास मैं मन के द्वारा पहुँच गया था। वे भीष्मजी अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों की वृत्तियों को एकाग्रकर बुद्धि के द्वारा मन का संयम करके मेरी शरण में आ गये थे; इसीलिये मेरा मन भी उन्हीं में जा लगा था।। तात ! भूपाल ! जिन्हें गंगादेवी ने विधिपूर्वक अपने गर्भ में धारण किया था और जिन्हें महर्षि वसिष्ठ के द्वारा वेदों की शिक्षा प्राप्त हुई थे, उन्हीं भीष्म जी के पास मैं मन-ही-मन पहुँच गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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