महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 362 श्लोक 1-18

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द्विषष्ट्यधिकत्रिशततम (362) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विषष्ट्यधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

नागराज का ब्राह्मण के पूछने पर सूर्यमण्डल की आश्चर्यजनक घटनाओं को सुनाना

ब्राह्मण ने कहा - नागराज ! आपउ सूर्य के एक पहिये के रथ को खींचने के लिये बारी-बारी जाया करते हैं। यदि वहाँ कोई आश्चर्यजनक बात आपने देखी हो तो उसे बताने की कृपा करें।

नाग ने कहा- ब्रह्मन् ! भगवान सूर्य तो अनेकानेक आश्चर्यों के स्थान हैं; क्योंकि तीनों लोकों में जितने भी प्राणी हैं, वे सब उन्हीं से प्रेरित होकर अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। जैसे वृक्ष की शाखाओं पर बहुत से पक्षी बसेरा लेते हैं, उसी प्रकार सूर्यदेव की सहस्त्रों किरणों का आश्रय ले देवताओं सहित सिद्ध और मुनि निवास करते हैं। महान् वायुदेव सूर्यमण्डल से निकलकर सूर्य की किरणों का आश्रय ले समूचे आकाश में फैल जाते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ? ब्रह्मर्षे ! प्रजा के हित की कामना से भगवान सूर्य उस वायु को अनेक भागों में विभक्त करके वर्षा-ऋतु में जो जल की वृष्टि करते हैं, उससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ? शुक्र नामक काला मेघ, जो आकाश में वर्षा के समय जल उत्पन्न करता है, वह इस सूर्य का ही स्वरूप है। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा ? सूर्यदेव बरसात में पृथ्वी पर जो पानी बरसाते हैं, उसे अपनी विशुद्ध किरणों द्वारा आठ महीने में पुनः खींच लेते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी ? विप्रवर ! जिन सूर्यदेव के विशिष्ट तेज में साक्षात् परमात्मा का निवास है, जिनसे नाना प्रकार के बीज उत्पन्न होते हैं, जिनके ही सहारे चराचर प्राणियों सहित यह समस्त पृथ्वी टिकी हुई है तथा जिनके मण्डल में आदि-अन्त रहित महाबाहु सनातन पुरुषोत्तम भगवान नारायण विराजमान हैं, उनसे बढ़कर आश्चर्य की वस्तु और क्या हो सकती है ? किंतु इस सब आश्चर्यों में भी एक परम आश्चर्य की यह बात है जो मैंने सूर्य के सहारे निर्मल आकाश में अपनी आँखें देखी हैं, उसे बता रहा हूँ- सुनिये। पहले की बात है, एक दिन मध्यान्हकाल में भगवान भास्कर सम्पूर्ण लोको को तपा रहे थे। उसी समय दूसरे सूर्य के समान एक तेजस्वी पुरुष दिखायी दिया, जो सब ओर से प्रकाशित हो रहा था। वह अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करता हुआ मानो आकाश को चीरकर सूर्य की ओर बढ़ा आ रहा था। घी की आहुति डालने से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान वह अपनी तेजस्वी किरणों से समस्त ज्योतिमण्डल को व्याप्त करके अनिर्वचनीय रूप से द्वितीय सुर्य की भाँति देदीप्यमान होता था। जब वह निकट आया, तब भगवान सूर्य ने उसके स्वागत के लिये अपनी दोनों भुजाएँ उसकी ओर बढ़ा दीं। उसने भी उनके सम्मान के लिये अपना दाहिना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया। तत्पश्चात् आकाश को भेदकर वह सूर्य की किरणों के समूह में समा गया और एक ही क्षण में तेजोराशि के साथ एकाकार होकर सूर्यस्वरूप हो गया। उस समय दन दोनों तेजों के मिल जाने पर हम लोगों के मन में यह संदेह हुआ कि इन दोनों में असली सूर्य कौन थे ? जो उस रथ पर बैठे हुए थे वे, अथवा जो अभी पधारे थे वे ? ऐसी शंका होने पर हमने सूर्यदेव से पूछा- ‘भगवन् ! ये जो दूसरे सूर्य के समान आकाश को लाँघकर यहाँ तक आये थे, कौन थे ?’

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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