महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 339 श्लोक 1-20

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एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (339) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

श्वेतद्वीप में नारदजी को भगवान् का दर्शन, भगवान् का वासुदेव-संकर्षण आदि अपने व्यूह स्वरूपों का परिचय कराना और भविष्य में होने वाले अवतारों के कार्यों की सूचना देना और इस कथा के श्रवण-पठन का महात्म्य

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! इस प्रकार गुह्य तथा सत्य नामों से जब नारदजी ने भगवान् की स्तुति की, तब उन्होंने विश्वरूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया। उनका वह स्वरूप कुछ चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल और कुछ चन्द्रमा से भी विलक्षण था। कुछ अग्नि के समान देदीप्यमान और कुद नक्षत्रों के समान जाज्वल्यमान था। कुछ तोते की पाँख के समान हरा, कुछ स्फअिकमणि के समान उज्जवल, कहीं से कज्जलराशि के समान काला औी कहीं से सुवर्ण के समान कान्तिमान् था। कहीं नवांकुरित पल्लव के समान था। कहीं श्वेतवर्ण दिखायी देता था, कहीं सुनहरी आभा दिखायी देती थी और कहीं-कहीं वैदूर्यमणि की सी छटा छिटक रही थी। कहीं नीलवैदूर्य, कहीं इन्द्रनीलमणि, कहीं मोर की ग्रीवा के सदृश वर्ण और कहीं मोती के हार की सी कान्ति दृष्टिगोचर होती थीे। इस प्रकार वे सनातन भगवान् श्रीहरि अपने स्वरूप में नाना प्रकार के रंग धारण किये हुए थे। उनके हजारों नेत्र, सैंकड़ों (हजारो)मस्तक, हजारों पैर, हजारों उदर और हजारों हाथ थे। वे अपूर्व कान्ति से सम्पन्न थे और कहीं-कहीं उनकी आकृति अव्यक्त थी। सबको वश में रखने वाले वे भगवान् नारायण हरि एक मुख से तो ओंकार तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली गायत्री का जप करते थे एवं अन्यान्य मुखों से चारों वेदों और उनके आरण्यकभाग का गान कर रहे थे। यज्ञों के स्वामी उन भगवान् देवेश्वर विष्णु ने उस समय अपने हाथों में यज्ञवेदी, कमण्डलु, चमकीले मणिरत्न, उपानह, कुशा, मृगचर्म, दण्ड-काष्ठ और प्रत्वलित अग्नि - ये सब वस्तुएँ ले रखी थीे। उनका दर्शन करने के पश्चात् प्रसन्नचित्त हुए द्विजश्रेष्ठ नारद ने मौनभाव से नतमसतक हो उन प्रसन्न हुए परमेश्वर की वन्दना की। मसतक झुकाकर चरणों में पड़े हुए नारदजी से देवताओं के आदिकारण अविनाशी श्रीहरि ने इस प्रकार कहा।

श्रीभगवान् बोले - देवर्षे ! महर्षि एकत, द्वित और त्रित - ये सब भी मेरे दर्शन की इच्छा से इस स्थान पर आये हुए थे। किंतु उन्हें मेरा दर्शन न प्राप्त हो सका। वास्तव में मेरे अनन्य भक्त के सिवा और कोई मनुष्य मेरा दर्शन नहीं कर सकता। तुम तो मेरे अनन्य भक्तों में श्रेष्ठ हो; इसलिये तुम्हें मेरा दर्शन हुआ है। विप्रवर ! धर्म के घर में जो अवतीर्ण हुए हैं, वे नर-नारायण आदि चारों भाई मेरे ही स्वरूप हैं; अतः तुम सदा उनका भजन किया करो तािा जो कार्य प्रापत हो उसका साधन करो। द्विजश्रेष्ठ ! मैं अविनाशी विश्वरूप परमेश्वर आज तुमपर प्रसन्न हुआ हूँ; अतः तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, वह वर माँग लो।

नारदजी ने कहा - देव ! जब मैंने आप भगवान् का दर्शन पा लिया, तब मुण्े तप, यम और नियम - सबका फल ततकाल ही मिल गया। भगवन् ! आप सम्पूर्ण विश्व के द्रष्टा, सिंह के समान निर्भय, सर्वस्वरूप, महान् एवं सनातन प्रभु हैं। आपका जो दर्शन हो गया, वही मेरे लिये सबसे बड़ा वरदान है।

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! इस प्रकार दर्शन देकर भगवान् ने ब्रह्मपुत्र नारदजी से फिर कहा, ‘नारद ! जाओ, विलम्ब न करो। ‘ये इन्द्रिय और आहार से शून्य, चन्द्रमा के समान कान्तिवान! मेरे भक्तजन एकागभाव से मेरा चिन्तन कर सकें और इसके ध्यान में किसी प्रकार का विघ्न न हो, इसके लिये तुम्हें यहाँ से चले जाना चाहिये। ‘यहाँ निवास करने वाले ये सभी महाभाग सिद्ध हो चुके हैं। ये पहले भी मेरे अनन्य भक्त रहे हैं। ये तमोगुण और रजोगुण से मुक्त हैं, अतः निःसंदेह मुझमें ही प्रवेश करेंगे|


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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