महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 331 श्लोक 38-57

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एकत्रिंशदधिकत्रिशततम(331) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्यायः: श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद

सब लोग लोकाके के ऊपर-से-ऊपर स्थान में जाना चाहते हैं और यथाशक्ति इसके लिये चेष्टा भी करते हैं; किन्तु वैसा करने में समर्थ नहीं होते। प्रमाद रहित पराक्रमी शूरवीर भी ऐश्वर्य तािा मदिरा के मद से उन्मत्त रहने वाले शठ मनुष्यों की सुवा करते हैं। कितने ही लोगों के क्लेश ध्यान दिये बिना ही निवृत्त हो जाते हैं तथा दूसरों को अपने ही धन में से कुछ नहीं मिलता। कर्मों के फल में भी बड़ी भारी विषमता देखने में आती है। कुद लोग पालकी ढोते हैं और दूसरे लोग उसी पालकी में बैठकर चलते हैं। सभी मनुष्य धन और समृद्धि चाहते हैं; परन्तु उनमें से थोड़े-से ही ऐसे लोग हांते हैं, जो रथ पर चढ़कर चलते हैं। कितने ही पुरुष स्त्रीरहित हैं और सैंकड़ों मनुष्य कई स्त्रियों वाले हैं। सभी प्राणी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में रम रहे हैं। मनुष्य उनमें से एक-एक का अनुभव करते हैं अर्थात् किसी को सुख का अनुभव होता है, किसी को दुःख का। यह जो ब्रह्म नामक वस्तु है, इसे सबसे भिन्न एवं विलक्षण समझो। इसके विषय में तुम्हें मोहग्रसत नहीं होना चाहिये।। धर्म और अधर्म को छोड़ो। सत्य और असत्य दोनों का त्याग करो। सत्य और असत्य दोनों का त्याग करके जिससे त्याग करते हो, उस अहुकार को भी त्याग दो। मुनिश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे देवता लोग मत्र्यलोक छोड़कर स्वर्गलोक को चले गये।नारदजी की बात सुनकर परम बु0िमान और धीरचित्त शुकदेव जी ने मन-ही-मन बहुत विचार किया; किंतु सहसा वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। वे सोचने लगे, स्त्री-पुत्रों के झमेले में पड़ने से महान् क्लेश होगा। विद्याभ्यास में भी बहुत अधिक परिश्रम है। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे सनातन पद प्रापत हो जाय। उस साधन में क्लेश तो थोड़ा हो, किंतु अभ्युदय महान् हो। तदनन्तर उन्होंने दो घड़ी तक अपनी निश्चित गति के विषय में विचार किया; फिर भूत और भविष्य के ज्ञाता शुकदेवजी को अपने धर्म की कल्याणमयी परम गति का निश्चय हो गया। फिर वे सोचने लगे, मैं सब प्रकार की उपाधियों से मुक्त होकर किस प्रकार उस उत्तम गति को प्रापत करूँ, जहाँ से फिर इस संसार-सागर में आना न पड़े। जहाँ जाने पर जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती, मैं उसी परमभाव को प्राप्त करना चाहता हूँ। सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग करके मैंने मन के द्वारा उत्तम गति प्राप्त करने का निश्चय किया है। अब मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ मेरे आत्मा को शानित मिलेगी तािा जहाँ मैं अक्षय, अविनाशी और सनातन रूप से स्थित रहूँगा। परंतु योग के बिना उस परम गति को नहीं पे्रापत किया जा सकता। बुद्धिमान् का कर्मों के निकृष्ट बन्धन से बँधा रहना उचित नहीं है। अतः मैं योग का आश्रय ले इस देह-गेह का परित्याग करके वायुरूप हो तेजोराशिमय सूर्यमण्डल में प्रवेश करूँगा। देवता लोग चन्द्रमा का अमृत पीकर जिस प्रकार उसे क्षीण कर देते हैं, उस प्रकार सूर्यदेव का क्षय नहीं होता। धूममार्ग से चन्द्रमण्डल में गया हुआ जीव कर्मभोग समाप्त होने पर कम्पित हो फिर इस पृथ्वी पर गिर पड़ता है। इसी प्रकार नूतन कर्मफल भोगने के लिये वह पुनः चन्द्रलोक में जाता है (सारांश यह कि चन्द्रलोक में जाने वाले को आवागमन से छुटकारा नहीं मिलता है)। इसके सिवा चन्द्रमा सदा घटता- बढ़ता रहता है। उसकी ह्रास-वृद्धि का क्रम कभी टूटता नहीं है। इन सब बातों को जानकर मुझे चन्द्रलोक में जाने या ह्रास-वृद्धि के चक्कर में पड़ने की इच्छा नहीं होती है। सूर्यदेव अपनी प्रचण्ड किरणों से समसत जगत् को संतप्त करते हैं। वे सब जगह से तेज को स्वयं ग्रहण करते हैं। वे सब जगह से तेज को स्वयं ग्रहण करते हैं (उनके तेज का कभी ह्रास नहीं होता); इसलिये उनका मण्डल सदा अक्षय बना रहता है। अतः उद्दीप्त तेज वाले आदित्यमण्डल में जाना ही मुझे अचछा जान पड़ता है। इसमें मैं निर्भीकचित्त होकर निवास करूँगा। किसी के लिये भी मेरा पराभाव करना कठिन होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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