महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 37-51

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एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 37-51 का हिन्दी अनुवाद

’अंगराज ने सातों सोम-संस्थाओं में जो धन दिया था, उतना जो दे सके, ऐसा दूसरा न तो कोई मनुष्य पैदा हुआ है और न पैदा होगा। ’सृंजय! पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणों में वे बृहद्रथ तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये संतप्त न हो ओ। ’सृजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था)1 वे उशीनर पुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है। ’वे अपने रथ की गम्भीर ध्वनि से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए एकमात्र विजयशील रथ के द्वारा इस भूमण्डल का एकछत्र शासन करते थे।’आज संसार में जंगली पशुओं सहित जितने गाय-बैल और घोड़े हैं, उतनी संख्या में उशीनर पुत्र शिबि ने अपने यज्ञ में केवल गौओं का दान दिया किया। सृजय! प्रजापति ब्रह्मा ने इन्द्र के तुल्य पराक्रमी उशीनर पुत्र राजा शिबि के सिवा सम्पूर्ण राजाओं में भूत या भविष्य अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम- ये सात सोम संस्थाएँ हैं। काल के दूसरे किसी राजा को ऐसा नहीं माना, जो शिबि का कार्यभार वहन कर सकता हो। ’सृंजय! राजा शिबि पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी बातों में तुमसे बहुत बढ़े-चढे थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरे की क्या बात है, अतः तुम आने पुत्र के लिये शोक मत करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था, न दक्षिणा ही दी थी; अतः उस पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र महाधनी महा मनस्वी भरत भी मृत्यु भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमने सुना था। ’उन महातेजस्वी दुष्यन्त कुमार भरत ने पूर्वकाल में देवताओं की प्रसन्नता के लिये यमनुा के तट पर चैदह घोड़े बाँधकर उतने-उतने अश्वमेध यज्ञ किये थे।[१]उन्होंने अपने जीवन में एक सहस्त्र अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञ सम्पन्न किये थे। ’जैसे मनुष्य दोनों भुजाओं से आकाश को तैर नहीं सकते, उसी प्रकार सम्पूर्ण राजाओं में भरत का जो महान् कर्म है, उसका दूसरे राजा अनुकरण न कर सके। ’उन्होंने सहस्त्र से भी अधिक घोड़े बाँधे और यज्ञ-वेदियों का विस्तार करके अश्वमेध यज्ञ किये। उसमें भरत ने आचार्य कण्व को एक हजार सुवर्ण के बने हुए कमल भेंट किये। ’ सृंजय! वे साम, दान, दण्ड और भेद- इन चार कल्याणमयी नीतियों अथवा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य और ऐश्वर्य- इन चार मंगलकारी गुणों में तुम से बहुत बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरा कौन जीवित रह सकता है। अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि दशरथ नन्दन भगवान श्री राम जी यहाँ से परम धाम को चले गये थे, जो सदा अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पहले द्रोण पर्व में जो सोलह राजाओं के प्रसंग आये हैं, उनमें और यहाँ के प्रसंग में पाठ भेदों के कारण बहुत अन्तर देखा जाता है। वहाँ भरत के द्वारा यमुनातट पर सौ, सरस्वती तट पर तीन सौ और गंगातट पर चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये गये थे- यह उल्लेख है।

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