महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 297 श्लोक 28-41

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सप्‍तनवत्‍यधिकद्विशततम (297) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तनवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! पुरूष का एक ही शत्रु है, उसके समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है। वह है अज्ञान, जिससे आवृत और प्रेरित होकर मनुष्‍य अत्‍यन्‍त घोर और क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता है । राजकुमार ! उस शत्रु को पराजित करने में वही समर्थ हो सकता है, जो वेदोक्‍त धर्मसम्‍पन्‍न वृद्ध पुरूषों की सेवा करके प्रज्ञा (स्थिरबुद्धि) - को प्राप्‍त कर लेता है, क्‍योंकि अज्ञानमय शत्रु को जीतना महान प्रयत्‍नसाध्‍य कर्म है। वह प्रज्ञारूपी बाण की चोट खाकर ही नष्‍ट होता है । द्विज को पहले ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहकर तपस्‍या-पूर्वक वेदों का अध्‍ययन करना चाहिये; फिर गृहस्‍थाश्रम में प्रवेश करके अपनी शक्ति के अनुसार इन्द्रिय संयमपूर्वक पंच महायज्ञोंका अनुष्‍ठान करना चाहिये। तत्‍पश्‍चात अपने पुत्र को घर-बार की रक्षा में नियुक्‍त करके कल्‍याण माग्र में स्थित हो केवल धर्मपालन की इच्‍छा रखकर उसे वन को प्रस्‍थान करना चाहिये । तात ! उपभोग के साधनों से वंचित होने पर भी मनुष्‍य अपने-आपको हीन न समझे। चाण्‍डाल की योनि में भी यदि मनुष्‍य-जन्‍म प्राप्‍त हो तो वह मानवेतर प्राणियों की अपेक्षा सर्वथा उत्‍तम है । क्‍योंकि पृथ्‍वीनाथ ! मनुष्‍य की योनि ही वह अद्वितीय योनि है, जिसे पाकर शुभकर्मों के अनुष्‍ठान से आत्‍मा का उद्धार किया जा सकता है । 'प्रभो ! हम कौन ऐसा उपाय करें, जिससे हमें इस मनुष्‍य-योनि से नीचे न गिरना पड़े' यह सोचकर और वैदिक प्रमाणों पर विचार करके मनुष्‍य धर्म का अनुष्‍ठान करते हैं । जो मानव अत्‍यन्‍त दुर्लभ मनुष्‍य-शरीर को पाकर भी दूसरों से द्वेष करता है और धर्मका अनादर करता है तथा मन में कामनाओं में आसक्‍त हो जाता है, वह महान लाभ से वंचित होता है । तात् ! जो समस्‍त प्राणियों को दीपक के समान स्‍नेह से संवर्धन करने योग्‍य मानता है और उन्‍हे स्‍नेहभरी दृष्टि से देखता है एवं जो समस्‍त विषयों की ओर कभी दृष्टिपात नहीं करता, वह परलोक में सम्‍मानित होता है । जो सब लोगों को सान्‍त्‍वना प्रदान करता, भूखों को भोजन देता और प्रिय वचन बोलकर स‍बका सत्‍कार करता है, वह सुख-दुख में सम रहकर (इहलोक और ) परलोक में प्रतिष्ठित होता है । राजन् ! सरस्‍वती नदी, नैमिषारण्‍यक्षेत्र, पुष्‍कर क्षेत्र तथा और भी जो पृथ्‍वी के पावन तीर्थ हैं, उनमें जाकर दान देना, भोगों का त्‍याग करना, शान्‍तभाव से रहना तथा तपस्‍या और तीर्थ के जल से तन-मन को पवित्र करना चाहिये । घरो में जिनके प्राण निकल रहे हों, उन्‍हें शीघ्र ही घर से बाहर ले जाना उत्‍तम है। मृत्‍यु के पश्‍चात उन्‍हें विमान पर सुलाकर श्‍मशान में पहुँचाना तथा पवित्रतापूर्वक शास्‍त्रोक्‍त विधि से उनका द्राह-संस्‍कार करना आवश्‍यक कर्तव्‍य है । मनुष्‍य अपनी शक्ति के अनुसार इष्टि-पुष्टि (शान्तिकर्म), यजन, याजन, दान, पुण्‍यकर्मों का अनुष्‍ठान तथा श्राद्ध आदि जो भी कुछ उत्‍तम कार्य करता है, वह सब अपने ही लिये करता है । नरेश्‍वर ! धर्मशास्‍त्र और छहों अंगों सहित वेद पुण्‍यकर्म करने वाले पुरूष के कल्‍याण के लिये ही कर्तव्‍य का विधान करते हैं । भीष्‍म जी कहते हैं - युघिष्ठिर ! प्राचीन काल में महात्‍मा पराशर मुनि ने विदेहराज जनक के कल्‍याण के लिये यह सब उपदेश दिया था ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पराशरगीताविषयक दो सौ सतानवेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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