महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 274 श्लोक 1-14

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चतु: सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (274) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतु: सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-14 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

मोक्ष के साधन का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह ! आपने योग्‍य उपाय से मोक्ष की प्राप्ति बतायी, अयोग्‍य उपाय से नहीं। भरतनन्‍दन ! वह यथायोग्‍य उपाय क्‍या है ? इसे मैं सुनना चाहता हूँ । भीष्‍म जी ने कहा- महाप्राज्ञ निष्‍पाप नरेश ! तुम उचित उपाय से ही सदा सम्‍पूर्ण धर्म आदि पुरूषार्थों की खोज किया करते हो। इसलिये तुममें सुने हुए विषयों की परीक्षा करने की निपुण दृष्टि का होना उचित ही है । घट के निर्माणकाल में जिस बुद्धि का उपयोग है, वह घट की उत्‍पत्ति हो जाने पर आवश्‍यक नहीं रहती, इसी प्रकार चित-शुद्धि के उपायभूत यज्ञादि धर्मों का लक्ष्‍य पूरा हो जाने पर मोक्षसाधनरूप शम-दमादि अन्‍य धर्मों के लिये वे आवश्‍यक नहीं रहते । देखो, जो मार्ग पूर्व समुद्र की ओर जाता है, वह पश्चिम स्रमुद्र की ओर नहीं जा सकता। इसी प्रकार मोक्ष का भी एक ही मार्ग है, उसे मैं विस्‍तारपूर्वक बता रहा हूँ, सुनो । मुमुक्षु पुरूष को चाहिये कि क्षमा से क्रोध का और संकल्‍पों के त्‍याग से कामनाओं का उच्‍छेद कर डाले। धीर पुरूष ज्ञानध्‍यानादि सात्त्विक गुणों के सेवन से निद्रा का क्षय करे । अप्रमाद से भय को दूर करे, आत्‍मा के चिन्‍तन से श्‍वास की रखा करे अर्थात प्राणायाम करे और धैर्य के द्वारा इच्‍छा, द्वेष एवं काम का निवारण करे । तत्त्वेत्ता पुरूष शास्‍त्र के अभ्‍यास से भ्रम, मोह और संशय का तथा आलस्‍य और प्रतिभा (नानाविषयिणी बुद्धि) - इन दोनों दोषों का ज्ञान के अभ्‍यास से निराकरण करे । शारीरिक उपद्रवों तथा रोगों का हितकर, सुपाच्‍य और परिमित आहार से, लोभ और मोह का संतोष से तथा विषयों का तात्विक दृष्टि से निवारण करे । अधर्म को दया से और धर्म को विचारपूर्वक पालन करने से जीते। भविष्‍य का विचार करके आशा पर और आसक्ति के त्‍याग से अर्थ पर विजय प्राप्‍त करें । विद्वान पुरूष वस्‍तुओं की अनित्‍यता का चिन्‍तन करके स्‍नेह को, योगाभ्‍यास के द्वारा क्षुधा को, करूणा के द्वारा अपने अभिमान को और संतोष से तृष्‍णा को जीतें । आलस्‍य को उद्योग से और विपरीत तर्क को शास्‍त्र के प्रति दृढ विश्‍वास से जीते, मौनावलम्‍बन द्वारा बहुत बोलने की आदत को और शूरवीरता के द्वारा भय को त्‍याग दे । मन और वाणी को अर्थात मन सहित समस्‍त इन्द्रियों को बुद्धि द्वारा वश में करें, बुद्धि का विवेकरूप नेत्र द्वारा शमन करे, फिर आत्‍मज्ञान द्वारा विवेकज्ञान का शमन करे और आत्‍मा को परमात्‍मा में विलीन कर दे। इस प्रकार पवित्र आचार-विचार से युक्‍त साधक को सब ओर से उपरत होकर शान्‍त भाव से परमात्‍मा का साक्षात्‍कार करना चाहिये । काम, क्रोध, लोभ, भय और निद्रा -ये ही योगसम्‍बन्‍धी वे पाँच दोष हैं, जिनको विद्वान पुरूष जानते हैं। इनका मूलोच्‍छेद कर देना चाहिये तथा इनका परित्‍याग करके वाणी को संयम में रखते हुए योगसाधनों का सेवन करना चाहिये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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