महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 271 श्लोक 37-51

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एकसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (271) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 37-51 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


धर्म में श्रद्धा रखते हुए दीर्घकाल तक उग्र तपस्‍या में लगे हुए उस ब्राह्मण को दिव्‍यदृष्टि प्राप्‍त हो गयी । उस समय उसे यह अनुभव हुआ कि यदि मैं संतुष्‍ट होकर इस जगत में किसी को प्रचुर धन दे दूँ तो मेरा दिया हुआ वचन मिथ्‍या नहीं होगा । यह विचार आते ही उसका मुख प्रसन्‍नता से खिल उठा और उसने बड़े उत्‍साह के साथ पुन: तपस्‍या आरम्‍भ की। पुन: सिद्धि प्राप्‍त होने पर उसने देखा कि वह मन में जो-जो संकल्‍प करता है, वह अत्‍यन्‍त महान् होने पर भी सामने प्रस्‍तुत हो जाता है। यह देखकर ब्राह्मण ने पुन: यों विचार किया- ‘यदि मैं संतुष्‍ट होकर जिस किसी को भी राज्‍य दे दूँ तो वह शीघ्र ही राजा हो जायगा। मेरी यह बात कभी मिथ्‍या नहीं हो सकती’ । भरतनन्‍दन ! इतने ही में ब्राह्मण की तपस्‍या के प्रभाव से तथा उसके प्रति सौहार्द से प्रेरित होकर कुण्‍डधार ने उसे प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया । उससे मिलकर ब्राह्मण ने कुण्‍डधार की विधिपूर्वक पूजा की। नरेश्वर ! उसे देखकर ब्राह्मण को बड़ा आश्‍चर्य हुआ । तब कुण्‍डधार ने ब्राह्मण से कहा- 'विप्रवर ! तुम्‍हें परम उत्तम दिव्‍य दृष्टि प्राप्‍त हुई है; अत: तुम अपनी आँखों से देख लो कि राजाओं को किस गति की प्राप्ति होती है तथा वे किन-किन लोकों में जाते हैं’ । तब उस ब्राह्मण ने दूर से ही अपने दिव्‍य नेत्रों से देखा कि सहस्‍त्रों राजा नरक में डूबे हुए हैं । कुण्‍डधार बोला-ब्रह्मण्‍ ! तुमने बड़े भक्ति भाव से मेरी पूजा की थी । इस पर भी यदि तुम धन पाकर दु:ख ही भोगते रहते तो मेरे द्वारा तुम्‍हारा क्‍या उपकार हुआ होता और तुम्‍हारे ऊपर मेरा कौन-सा अनुग्रह सिद्ध हो सकता था । देखो-देखो, एक बार फिर लोगों की दशा पर दृष्टिपात करो। यह सब देख-सुनकर मनुष्‍य भोगों की इच्‍छा कैसे कर सकता है। जो धन और भोगों में आसक्‍त हैं, ऐस लोगों, विशेषत: मनुष्‍यों के लिये स्‍वर्ग का दरवाजा प्राय: बंद ही रहता है । भीष्‍म जी कहते हैं- राजन् ! तदनन्‍तर ब्राह्मण ने देखा कि उन भोगी पुरूषों को काम, क्रोध, लोभ, भय, मद, निद्रा, तन्‍द्रा और आलस्‍य आदि शत्रु घेरकर खड़े हैं । कुण्‍डधार बोला-विप्रवर ! देखो, सब लोग इन्‍हीं दोषों से घिरे हुए हैं। देवताओं को मनुष्‍यों से भय बना रहता है, इसलिये ये काम आदि दोष देवताओं के आदेश से मनुष्‍य के धर्म और तपस्‍या में सब प्रकार से विध्‍न डाला करते हैं । देवताओं की अनुमति प्राप्‍त किये बिना कोई निर्विध्‍न रूप से धर्मका अनुष्‍ठान नहीं कर सकता; किंतु तुम्‍हें तो देवताओं का अनुग्रह प्राप्‍त हो गया है। इसलिये अब तुम अपने तप के प्रभाव से दूसरों को राज्‍य और धन देने में समर्थ हो गये हो । भीष्‍म जी कहते हैं- राजन् ! तब उस धर्मात्‍मा ब्राह्मण ने धरती पर मस्‍तक टेककर कुण्‍डधार मेघ को साष्‍टांग प्रणाम किया और उससे कहा -'प्रभो ! आपने मुझ पर महान् अनुग्रह किया है। आपके स्‍नेह को न समझकर काम और लोभ के बन्‍धन में बँधे रहने से मैंने पहले आपके प्रति जो दोषदृष्टि कर ली थी, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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