महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 253 श्लोक 1-15

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त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततम (253) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

स्‍थूल, सूक्ष्‍म और कारण-शरीर से भिन्‍न जीवात्‍मा का और परमात्‍मा का योग के द्वारा साक्षात्‍कार करने का प्रकार   व्‍यासजी कहते हैं– बेटा ! योगशास्‍त्र के ज्ञाता शास्‍त्रोक्‍त कर्मों के द्वारा स्‍थूल शरीर से निकले हुए सूक्ष्‍म स्‍वरूप जीवात्‍मा को देखते हैं। जैसे सूर्य की किरणें परस्‍पर मिली हुई ही सर्वत्र विचरती हैं एवं स्थित हुई दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार अलौकिक जीवात्‍मा स्‍थूल शरीर से निकलकर सम्‍पूर्ण लोकों में जाते है । (यह ज्ञानदृष्टि से ही जानने में आ सकता है)। जैसे विभिन्‍न जलाशयों के जल में सूर्य की किरणों का पृथक्-पृथक् दर्शन होता है, उसी प्रकार योगी पुरूष सभी सजीव शरीरों के भीतर सूक्ष्‍मरूप से स्थित पृथक् –पृथक् जीवोंको देखता है। शरीर को तत्‍व को जाननेवाले जितेन्द्रिय योगीजन उन स्‍थूल शरीरों से निकले हुए सूक्ष्‍म लिंग शरीरों से युक्‍त जीवों को अपने आत्‍मा के द्वारा देखते है। जो अपने मन में चिन्तित कर्मजनित रजोगुण का अर्थात् रजोगुणजनित काम आदि का योगबल से परित्‍याग कर देते हैं तथा जो प्रकृति के तादात्‍म्‍यभाव से भी मुक्‍त हैं, उन सभी योगपरायण योगी पुरूषों का जीवात्‍मा जैसे दिन में वैसे रात में, जैसे रात में वैसे दिन में सोते-जागते समय निरन्‍तर उनके वश में रहता है। उन योगियों का नित्‍य-स्‍वरूप जीव सदा सात सूक्ष्‍म गुणों (महत्तत्‍व, अहंकार और पॉच तन्‍मात्राओ) से युक्‍त हो अजर-अमर देवताओं की भॉति नित्‍यप्रति विचरता रहता है। जिस मूढ़ मनुष्‍यों का जीवात्‍मा मन और बुद्धि के वशीभूत रहता है, वह अपने और पराये शरीर को जाननेवाला मनुष्‍य स्‍वप्‍न अवस्‍था में भी सूक्ष्‍म शरीर से सुख-दु:ख का अनुभव करता है। वहॉ (स्‍वप्‍न में भी) उसे दु:ख और सुख प्राप्‍त होते है । एवं उस स्‍वप्‍न में भी (जाग्रत् की भॉति ही) क्रोध और लोभ करके वह संकट में पड़ जाता है। वहॉ भी महान् धर्म पाकर वह प्रसन्‍न होता है तथा पुण्‍यकर्मो का अनुष्‍ठान करता है; इतना ही नहीं, जाग्रत् अवस्‍था की भॉति वह स्‍वप्‍न में भी सब वस्‍तुओं को देखता है। (यह कितन बडे़ आश्‍चर्य की बात है कि) गर्भभाव को प्राप्‍त हुआ जीवात्‍मा दस मास तक माता के उदर में निवास करता है और जठरानलकी अधिक ऑच से सतप्‍त होता रहता है तो भी अन्‍न की भॉति पच नही जाता। यह जीवात्‍मा परमात्‍मा का ही अंश है और देहधारियों के हृदय में विराजमान है तथापि जो लोग रजोगुण और तमोगुण से अभिभूत हैं वे देह के भीतर उस जीवात्‍मा की स्थिति को देख या समझ नहीं पाते हैं। जड स्‍थूल शरीर, सूक्ष्‍म शरीर तथा वज्रतुल्‍य सुदृढ़ कारण शरीर –ये जो तीन प्रकार के शरीर हैं, इन्‍हें आत्‍मा को प्राप्‍त करने की इच्‍छावाले योगीजन योगशास्‍त्र परायण होकर लॉघ जाते है। संन्‍यास आश्रम कर्म भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के बताये गये है, इसी को शाण्डिल्‍य मुनि ने शम के नाम से (छान्‍दोग्‍यउपनिषद् शाण्डिल्‍य ब्राह्राण में) कहा है। जो पंचमन्‍मात्रा तथा मन और बुद्धि –इन सात सूक्ष्‍म तत्‍वों को शाश्‍वत जानकर एवं छ: अंगो से यानी ऐश्‍वर्यों से युक्‍त महेश्‍वर का ज्ञान प्राप्‍त करके इस बात को जान लेता है त्रिगुणात्मि का प्रकृति का परिणाम ही यह सम्‍पूर्ण जगत् है, वह परब्रह्रा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव का अनुप्रश्‍न विषयक दो सौ तिरपनवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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