महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 245 श्लोक 1-12

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पञ्चचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (245) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

शुकदेवजी ने पूछा-पिताजी ! ब्रह्राचर्य और गार्हस्‍थ्‍य आश्रमों में जैसे शास्‍त्रोक्त नियम के अनुसार चलना आवश्‍यक है, उसी प्रकार इस वानप्रस्‍थ आश्रम में भी शास्‍तोक्त नियम का पालन करते हुए चलना चाहिये । यह सब तो मैंने सुन लिया । अब मैं यह जानना चाहता हॅू, जो जानने योग्‍य परब्रह्रा परमात्‍मा को पाना चाहता हो, उसे अपनी शक्ति के अनुसार उस परमात्‍मा का चिन्‍तन कैसे करना चाहिये ? व्‍यासजी ने कहा-बेटा ! ब्रह्राचर्य और गृहस्‍थाश्रम के धर्मों द्वारा चित्त का संस्‍कार (शोधन) करने के अनन्‍तर मुक्ति के लिये जो वास्‍तविक कर्तव्‍य है, उसे बताता हॅू, तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो । पंक्तिक्रम से स्थित पूवोक्त तीन आश्रम ब्रह्राचर्य, गृहस्‍थ और वानप्रस्‍थ में चित्त के राग-द्वेष आदि दोषों को पकाकर-उन्‍हें नष्‍ट करके शीघ्र ही सर्वोत्तम चतुर्थ आश्रम संन्‍यास को ग्रहण कर ले। बेटा ! तुम इस संन्‍यास धर्म के नियमों को सुनो और उन्‍हें अभ्‍यास में लाकर उसी के अनुसार बर्ताव करो । संन्‍यासी को चाहिये कि वह सिद्धि प्राप्‍त करने के लिये किसी को साथ न लेकर अकेला ही संन्‍यास धर्म का पालन करे। जो आत्‍मतत्‍व का साक्षात्‍कार करके एकाकी विचरता रहता है, वह सर्वव्‍यापी होने के कारण न तो स्‍वयं किसीका त्‍याग करता हैं और न दूसरे ही उसका त्‍याग करते हैं। संन्‍यासी कभी न तो अग्नि की स्‍थापना करे और न घर या मठ ही बनाकर रहे; केवल भिक्षा लेने के लिये हीगॉव में जाय। वह दूसरे दिन के लिये अन्‍न का संग्रह न करे। चित्त वृत्तियों को एकाग्र करके मौनभाव से रहे। हलका और नियमानुकूल भोजन करे तथा दिन-रात में केवल एक ही बार अन्‍न ग्रहण करे। भिक्षापात्र एवं कममण्‍डलु रखे। वृक्ष की जड़ में सोये या निवास करे । जो देखने में सुन्‍दर न हो, ऐसा वस्‍त्र धारण करे ।किसी को साथ न रखे और सब प्राणियों की उपेक्षा कर दे। ये सब संन्‍यासी के लक्षण हैं। जैसे डरे हुए हाथी भगकर किसी जलाशय में प्रवेश कर जाते हैं, फिर सहसा निकलकर अपने पूर्व स्‍थान को नहीं लौटते उसी प्रकार जिस पुरूष में दूसरों के कहे निन्‍दात्‍मक या प्रशंसात्‍मक वचन समा जाते है, परंतु प्रत्‍युत्तर के रूप में वे वापस पुन: नहीं लौटते अर्थात् जो किसी की की हुई निन्‍दा या स्‍तुति का कोई उत्‍तर नहीं देता, वही संन्‍यास आश्रम में निवास कर सकता है। संन्‍यासी किसी की निन्‍दा करनेवाले पुरूष की ओर ऑख उठाकर देखे नहीं, कभी किसी का निन्‍दात्‍मक वचन सुने नहीं तथा विशेषत: ब्राह्राणों के प्रति किसी प्रकार न कहने योग्‍य बात न कहे। जिससे ब्राह्राणोंका हित हो, वैसा ही वचन सदा बोले। अपनी निन्‍दा सुनकर भी चुप रह जाय – इस मौनावलम्‍बन को भवरोग से छूटने की दवा समझकर इसका सेवन करता रहे। जो सदा अपने सर्वव्‍यापी स्‍वरूप से स्थित होने के कारण अकेले ही सम्‍पूर्ण आकाश में परिपूर्ण सा हो रहा है तथा जो असंग होने के कारण लोगों से भरे हुए स्‍थान को भी सूना समझता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्राण (ब्रह्राज्ञानी) मानते है। जो जिस किसी भी (वस्‍त्र-वल्‍कल आदि) वस्‍तु से अपना शरीर ढक लेता है, समयपर जो भी रूखा-सूखा मिल जाय, उसी से भूख मिटा लेता है और जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्रह्राज्ञानी समझते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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