महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 39-58

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अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम (228) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद

सदा धर्म की ही चर्चा में लगे रहते और प्रतिग्रह से दूर रहते थे । रात के आधे भाग में ही सोते थे और दिन में नहीं सोते थे । कृपण, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी और स्त्रियों पर दया करते तथा उनके लिये अन्‍न और वस्‍त्र बॉटते थे । इस कार्य का वे सदा अनुमोदन किया करते थे। त्रस्‍त, विषादग्रस्‍त, उद्विग्‍न, भयभीत, व्‍याघिग्रस्‍त,दुर्बल और पीडि़त को तथा जिसका सर्वस्‍व लुट गया हो, उस मनुष्‍य को वे सदा ढाढ़स बॅधाया करते थे। वे धर्म का ही आचरण करते थे । एक-दूसरे की हिंसा नहीं करते थे । सब कार्यो में परस्‍पर अनुकूल रहते और गुरूजनों तथा बडे़-बूढ़ों की सेवा में दतचित्‍त थे। पितरों, देवताओं और अतिथियों की विधिवत् पूजा करते थे तथा उन्‍हें अर्पण करने के पश्‍चात् बचे हुए अन्‍न को ही प्रसादरूपमें पाते थे। वे सभी सत्‍यवादी और तपस्‍वी थे। वे अकेले बढिया भोजन नहीं करते थे । पहले दूसरों को देकर पीछे अपने उपभोग में लाते थे । परायी स्‍त्री से कभी संसर्ग नहीं रखते थे । सब प्राणियों को अपने ही समान समझकर उन पर दया रखते थे। वे आकाश में, पशुओं में, विपरीत योनि में तथा पर्व के अवसरों पर वीर्यत्‍याग करना कदापि अच्‍छा नहीं मानते थे।
प्रभो ! नित्‍य दान, चतुरता, सरलता, उत्‍साह, अहंकारशून्‍यता, परम सौहार्द, क्षमा, सत्‍य, दान, तप, शौच, करूणा, कोमल वचन, मित्रों से द्रोह न करने का भाव ये सभी सद्गुण उनमें सदा मौजूद रहते थे। निद्रा, तन्‍द्रा (आलस्‍य), अप्रसन्‍नता, दोषदृष्टि, अविवेक, अप्रीति, विषाद और कामना आदि दोष उनके भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे। इस प्रकार उत्‍तम गुणोंवाले दानवों के पास सृष्टिकाल से लेकर अबतक मै उनके युगों से रहती आयी हॅू। किंतु समय के उलट फेर से गुणों में विपरीतता आ गयी । मैंने देखा, दैत्‍यों मे धर्म नहीं रह गया है । वे काम और क्रोध के वशीभूत हो गये हैं। जब बडे़ बूढे़ लोग उस सभा में बैठकर कोई बात कहते हैं, तब गुणहीन दैत्‍य उनमें दोष निकालते हुए उन सब वृद्ध पुरूषों की हॅसी उडाया करते है। ऊँचे आसनों पर बैठे हुए नवयुवक दैत्‍य बडे़ बूढ़ों के आ जानेपर भी पहले की भॉति न तो उठकर खडे़ होते हैं और न प्रणाम करके ही उनका आदर सत्‍कार करते हैं। बाप के रहते ही बेटा मालिक बन बैठता है । वे शत्रुओं के सेवक बनकर अपने उस कर्म को निर्लज्‍जातापूर्वक दूसरों के सामने कहते हैं। धर्म के विपरीत निन्दित कर्म द्वारा जिन्‍हें महान् धन प्राप्‍त हो गया हैं, उनकी उसी प्रकार धनोपार्जन करने की अभिलाषा बढ़ गयी है।
दैत्‍य रात में जोर-जोर से हल्‍ला मचाते है और उनके यहॉ अग्निहोत्रकी आग मन्‍दगति से जलने लगी है । पुत्रों ने पिताओं और स्त्रियों ने पतियों पर अत्‍याचार आरम्‍भ कर दिया। दैत्‍य और दानव गुरूत्‍व होते हुए भी माता-पिता, वृद्ध पुरूष, आचार्य, अतिथि और गुरूजनों का अभिनन्‍दन नहीं करते हैं । संतानों के लालन-पालन पर भी ध्‍यान नहीं देते है। देवताओं , पितरों, गुरूजनों तथा अतिथियों का यजन-पूजन और उन्‍हें अन्‍नदान किये बिना, भिक्षादान और बलिवैश्‍वदेव कर्म का सम्‍पादन किये बिना ही दैत्‍यलोग स्‍वयं भोजन कर लेते हैं। दैत्‍य तथा उनके रसोइये मन, वाणी और क्रिया द्वारा शौचाचार का पालन नहीं करते हैं । उनका भोजन बिना ढके ही छोड़ दिया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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