महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 3

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विंशत्‍यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 3 का हिन्दी अनुवाद

‘कार्य कारणरूप परमात्‍मा चिन्‍तन करता हुआ मैं सदा शान्‍तभाव से उन्‍हीं पर निर्भर रहता हूँ । कर्मो के अनुष्‍ठान से मृत्‍यु को पार करके ज्ञान के द्वारा अमृतमय परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर चुका हूँ और प्रारब्‍धवश जो कुछ प्रिय-अप्रिय पदार्थ प्राप्‍त होता है, उसको समानभाव से देखता हुआ मैं ईर्ष्‍या-द्वेष से रहित होकर यहॉ निवास करता हूँ। ‘भद्रे ! मैं तुम्‍हारा उचित शुल्‍क चुकाने का निश्‍चय कर चुका हूँ और तुम्‍हारा भरण पोषण करने में समर्थ हूँ; अत: तुम मेरा वरण करो ।‘ यह सुनकर सुवर्चला ने द्विजश्रेष्‍ठ श्‍वेतकेतु की ओर देखकर कहा। सुवर्चना बोली – विद्वन् ! मैंने अपने हृदय से आपका वरण कर लिया। शास्‍त्र में कथित शेष कार्यो की पूर्ति करनेवाले मेरे पिताजी हैं । आप उनसे मुझे मॉग लीजिये । यही वेदविहित मर्यादा है। भीष्‍मजी कहते हैं –राजन् ! यह सब वृतान्‍त जानकर सुवर्चला के पिता मुनिश्रेष्‍ठ देवल ने उददालकसहित श्‍वेतकेतु की पूजा करके मुनियों के सामने जल से संकल्‍प करके अपनी कन्‍या श्‍वेतकेतु को दे दी। वहॉ श्‍वेतकेतु को देखकर ऋषिगण इस प्रकार कहने लगे – मानों यहॉ श्‍वेतकेतु के रूप में सबके हृदय कमल में निवास करनेवाले, सर्वभूतस्‍वरूप श्रीहरि भगवान मधुसूदन ही विराजमान हैं। देवल बोले – वररूप में विराजमान ये भगवान लक्ष्‍मीपति प्रसन्‍न हों । यह मेरी पुत्री इन्‍हें पत्‍नीरूप से समर्पित है । प्रभो ! मैं आपको कल्‍याणमयी सहधर्मिणी के रूप में अपनी यह कन्‍या दे रहा हूँ। भीष्‍मजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर मुनिवर देवल ने उन्‍हें कन्‍यादान कर दिया । महायशस्‍वी श्‍वेतकेतु ने उस कन्‍या को लेकर उसके साथ यथोचितरूप से विधिपूर्वक विवाह किया। फिर मुनियों द्वारा कराये हुए परम उत्‍तम वैवाहिक विधान को पूर्ण करके गृहस्‍थ आश्रम में रहते हुए बुद्धिमान श्‍वेतकेतु ने अपनी उस धर्मपत्‍नी से इस प्रकार कहा। श्‍वेतकेतु ने कहा- शोभने ! वेदों में जिन शुभ कर्मो का विधान है, मेरे साथ रहकर उन सबका यथोचितरूप से अनुष्‍ठान करो और यथार्थरूप से मेरी सहधर्मचारिणी बनो। मैं इसी भाव में स्थित हूँ । तुम भी इसी भाव से स्थित रहना, अत: मेरी आज्ञा के अनुसार सारे कर्म करो, फिर मैं भी तुम्‍हारा प्रिय कार्य करूँगा। तदनन्‍तर ‘ये सब कर्म मेरे नहीं हैं और मैं इनका कर्ता नही हूँ’ इस भाव से ज्ञानाग्नि द्वारा उन सब कर्मो को भस्‍म कर डालो, तुम परम सौभाग्‍यवती हो। तुम्‍हें सदा इसी तरह ममता और अहंकार से रहित होकर कर्म करना चाहिये और मुझे भी ऐसा करना चाहिये । श्रेष्‍ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है वैसे ही दूसरे लोग भी करते हैं, अत: लोकव्‍यवहार की सिद्धि तथा आत्‍मकल्‍याण के लिये हम दोनों को कर्मो का अनुष्‍ठान करते रहना चाहिये। भीष्‍मजी कहते है-राजन् ! ऐसा उपदेश देकर सम्‍पूर्ण ज्ञान के एकमात्र निधि महाज्ञानी श्‍वेतकेतु ने सुवर्चला के गर्भ से अनेक पुत्र उत्‍पन्‍न किये । यज्ञों द्वारा देवताओं को संतुष्‍ट किया; फिर आत्‍मयोग में नित्‍य तत्‍पर रहकर वे निर्द्वन्‍द्व एवं परिग्रहशून्‍य हो गये। अपने अनुरूप पत्‍नी को पाकर श्‍वेतकेतु उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे बुद्धि को पाकर क्षेत्रज्ञ । वे दोनों पति-पत्‍नी लोकान्‍तर में भी पहॅुच जाते थे और इस जगत् में साक्षी की भाँति स्थित होकर प्रसन्‍नतापूर्वक विचरते थे। तदनन्‍तर एक दिन सुवर्चला ने अपने पति श्‍वेतकेतु से पूछा – ‘द्विजश्रेष्‍ठ ! आप कौर हैं, यह मुझे बताइये’ ! उस समय प्रवचन कुशल भगवान श्‍वेतकेतु ने उससे कहा –‘देवि ! तुमने मेरे विषय में जान ही लिया है, इसमें संदेह नहीं है । तुमने द्विजश्रेष्‍ठ कहकर मुझे सम्‍बोधित भी किया है; फिर उस द्विजश्रेष्‍ठ के सिवा और किसको पूछ रही हो ?’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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