महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 210 श्लोक 35-46

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दशाधिकद्विशततम (210) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 35-46 का हिन्दी अनुवाद

मन को महत्‍तत्‍व का कार्य कहा हैं और महत्‍तत्‍व को अव्‍यक्‍त प्रकृति का कार्य कहा है । अत: बुद्धिमान पुरूष को चाहिये कि वह समस्‍त भूतों के आत्‍मारूप परमेश्‍वर को समस्‍त प्राणियों में स्थित जानें। इस प्रकार ये सम्‍पूर्ण पदार्थों से सम्‍पन्‍न इस नौ द्वारोंवाले पवित्र पुर (शरीर) को व्‍याप्‍त करके इसमें इन सबसे जो महान् है वह आत्‍मा शयन करता है; इसलिये उसे ‘पुरूष’ कहते हैं। वह पुरूष जरा-मरण से रहित, व्‍याप्‍क, समस्‍त स्‍थूल-सूक्ष्‍म तत्‍वों का प्रेरक, सर्वज्ञत्‍व आदि गुणों से आश्रय है। जैसे दीपक छोटा हो या बड़ा, प्रकाशस्‍वरूप ही है, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियों में स्थित जीवात्‍मा ज्ञानस्‍वरूप है, ऐसा समझे। वही श्रवणेन्द्रिय को उसके ज्ञेयभूत शब्‍द का बोध कराता है । तात्‍पर्य यह कि श्रवण और नेत्रों द्वारा वही सुनता और देखता है । यह शरीर उसके शब्‍द आदि विषयों के अनुभव में निर्मित्‍त है ।वह जीवात्‍मा ही समस्‍त कर्मों का कर्ता है। जिस प्रकार अग्नि काष्‍ठ में व्‍याप्‍त रहनेपर भी काष्‍ठके चीरनेपर भी उसमें दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार आत्‍मा शरीर में रहता है, परंतु दिखायी नहीं देता- योग से ही उसका दर्शन होता है । जैसे मन्‍थन आदि उपायों द्वारा काष्‍ठ को मथकर उनमें अग्नि को प्रत्‍यक्ष किया जाता है, उसी प्रकार योगि के द्वारा शरीरस्‍थ आत्‍मा का साक्षात्‍कार किया जा सकता है। जैसे नदियों में जल रहता ही है और सूर्यमें किरणें भी रहती ही हैं तथा वे जल और किरणें नदी और सूर्य से नित्‍य सम्‍बद्ध होने के कारण उनके साथ-साथ जाती हैं, उसी प्रकार देहधारियों के सूक्ष्‍म शरीर भी जीवात्‍मा के साथ ही रहते हैं और उसे साथ लेकर ही आते-जाते हैं। जैसे स्‍वप्‍न में पाँच ज्ञानेन्द्रियों सहित जीवात्‍मा इस शरीर को छोड़कर अन्‍यत्र चला जाता है, वैसे ही मृत्‍यु के बाद भी वह इस शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण कर लेता है। कर्म के द्वारा ही इस देह का बाध होता है; कर्म से ही अन्‍य देह की उपलब्धि होती है तथा अपने किये हुए प्रबल कर्म के द्वारा ही वह अन्‍य शरीर में ले जाया जाता है। वह जीवात्‍मा जिस प्रकार एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करता है तथा अपने कर्मों से उत्‍पन्‍न हुआ प्राणिसमुदाय जिस प्रकार अन्‍य देह धारण करता हैं, वह सब मैं तुम्‍हें बतलाता हूँ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्‍ण सम्‍बन्‍धी अध्‍यात्‍मतत्‍व का निरूपण विषयक दो सौ दसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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