महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 121 श्लोक 23-44

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एकविंशत्‍यधिकशततम(121) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद

दण्‍ड सर्वत्र व्‍यापक होने के कारण भगवान् विष्‍णु है और नरों(मनुष्‍यो) का अयन (आश्रम) होने से नारायण कहलाता हैं।वह प्रभावशाली होने से प्रभु और सदा महत् रुप धारण करता हैं, इसलिये महान् पुरुष कहलाता है।

इसी प्रकार दण्‍डनीति भी ब्रह्जी की कन्‍या कही गयी है। लक्ष्‍मी, वृति, सरस्‍व‍ति तथा जगद्धाजी भी उसी के नाम है। इस प्रकार दण्‍ड के बहुत-से रुप है।। अर्थ-अनर्थ, सुख-दु:ख, धर्म-अधर्म, बल-अबल, दौर्भाग्‍य-सौभाग्‍य,पुण्‍य-पाप, गुण-अवगुण, काम-अकाम, ॠतु-मास, दिन-रात, क्षण, प्रमाद-अप्रमाद, हर्ष-क्रोध, शम-दम, दैव-पुरुषार्थ, बन्‍ध-मोक्ष, भय-अभय, हिंसा-अहिंसा, तप-यज्ञ, संयम, विष-अविष, आदि, अन्‍त, मध्‍य, कार्यविस्‍तार, मद, असावधानता, दर्प, दम्‍भ, धैर्य, नीति-अनिती, शक्ति-अशक्ति, मान,स्‍तब्‍धता, व्‍यय-अव्‍यय, विनय,दान, काल-अकाल, सत्‍य-असत्‍य, ज्ञान, श्रद्धा-अश्रद्धा ,अकर्मण्‍यता,उद्योग, लाभ-हानि, जय-पराजय, तीक्ष्‍णता-मृदुता, मृत्‍यु, आना-जाना, विरोध-अविरोध, कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य, सबलता-निर्बलता,असूया-अनसूया, धर्म-अधर्म , लज्‍जा-अलज्‍जा, सम्‍पति-विपति, स्‍थान, तेज, कर्म, पाण्डित्‍य, वाक्शक्ति तथा तत्‍वबोध ये सब दण्‍ड के ही अनेक नाम और रुप है। कुरुनन्‍दन ! इस प्रकार इस जगत् में दण्‍ड के बहुत-से रुप है। युधिष्ठिर ! यदि संसार में दण्‍ड की व्‍यवस्‍था नहोती तो सब लोग एक-दुसरे को नष्‍ट कर डालते। दण्‍ड के भय से मनुष्‍य आपस में मार-काट नहीं मचाते हैं।
राजन् ! दण्‍ड से सुरक्षित रहती हुई प्रजा ही इस जगत् में अपने राजा को प्रतिदिन धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न करती रहती है। इसलिये दण्‍ड ही सबको आश्रय देनेवाला है। नरेश्‍वर ! दण्‍ड ही इस लोक को शीघ्र ही सत्‍य में स्‍थापित करता है। सत्‍य में ही धर्म की स्थिति है और धर्म ब्राह्मणों में स्थित हैं। धर्मयुक्‍त श्रेष्‍ठ ब्रह्मण वेदों का स्‍वाध्‍याय करते हैं। वेदों से ही यज्ञ प्रकट हुआ है। यज्ञ देवताओं को प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं, इससे इन्‍द्र से प्रजाजनों पर अनुग्रह करके (समय पर वर्षा के द्वारा खेती उपजाकर) उन्‍हें अन्‍न देता है, समस्‍त प्राणियों के प्राण सदा अन्‍न पर ही टिेके हुए हैं; इसलिये दण्‍ड से ही प्रजाओं की स्थिति बनी हुई है। वही उनकी रक्षा के लिये सदा जगत् रहता है। इस प्रकार रक्षा रुपी प्रयोजन सिद्ध करनेवाला दण्‍ड क्षत्रियभाव को प्राप्‍त हुआ है। वह अविनाशी होने के कारण सदा सावधान होकर प्रजा की रक्षा के लिये जागता रहता है। ईश्‍वर, पुरुष, प्राण, सत्‍व, चित, प्रजापति, भूतात्‍मा तथा जीव-इन आठ नामों से दण्‍ड का ही प्रतिपादन किया जाता है। जो सर्वदा सैनिक-बल से सम्‍पन्‍न है तथा जो धर्म, व्‍यवहार, दण्‍ड, ईश्‍वर और जीवरुप से पांच[१] प्रकार के स्‍वरुप धारण करता है, उस राजा को ईश्‍वर ने ही दण्‍डनीति तथा अपना ऐश्‍वर्य प्रदान किया है। युधिष्ठिर ! राजा का बल दो तरह का होता है- एक प्राकृत और दूसरा आहार्य। उनमें से कुल, प्रचुर, धन, मन्‍त्री तथा बुद्धि ये चार प्राकृतिक बल कहे गये हैं, आहार्य बल उससे भिन्‍न हैं। वह निम्‍नाकित आठ वस्‍तुओं के द्वारा आठ प्रकार का माना गया है। हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, नौका, बेगार, देश की प्रजा तथा भेड़ आदि पशु-ये आठ अंगोवाला बल आहार्य माना गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. *किन्‍ही–किन्‍ही के मत में प्रजा के जीवन, धन, मान, स्‍वास्‍थ्‍य और न्‍याय की रक्षा करने के कारण राजा का स्‍वरुप पांच प्रकार का बताया गया है।

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