महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-15

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षष्टितमअध्यायः (60) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षष्टितमअध्यायःअध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

क्रोध में भरे हुए बलराम को श्रीकृष्ण का समझाना और युधिष्ठिर के साथ श्री कृष्ण की तथा भीमसेन की बातचीत धृतराष्ट्र ने पूछा- सूत ! उस समय राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारा गया देख महाबली मधुकुलशिरोमणि बलदेवजी ने क्या कहा था ? । संजय !गदायुद्ध के विशेषज्ञ तथा उसकी कला में कुशल रोहिणीनन्दन बलराम जी ने वहां जो कुछ किया हो, वह मुझे बताओ । संजय ने कहा- राजन ! भीमसेन द्वारा आपके पुत्र के मस्तक पर पैर का प्रहार हुआ देख योद्धाओं में श्रेष्ठ बलवान बलराम को बड़ा क्रोध हुआ । फिर वहां राजाओं की मण्डली में अपनी दोनों बांहें ऊपर उठाकर हलधर बलराम ने भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा- भीमसेन ! तुम्हें धिक्कार है ! धिक्कार है !! । अहो ! इस धर्मयुद्ध में नाभि से नीचे जो प्रहार किया गया है और जिसे भमसेन ने स्वयं किया है, यह गदायुद्ध में कभी नहीं देखा गया । नाभि से नीचे आघात नहीं करना चाहिये। यह गदायुद्ध के विषय में शास्त्र का स0िान्त है। परंतु यह शास्त्र ज्ञान से शून्य मूर्ख भीमसेन यहां स्वेच्छाचार कर रहा है । ये सब बातें कहते हुए बलदेवजी का रोष बहुत बढ़ गया। फिर राजा दुर्योधन की ओर दृष्टिपात करके उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गयी । महाराज ! फिर बलदेवजी ने कहा- श्रीकृष्ण ! राजा दुर्योधन मेरे समान बलवान था। गदायुद्ध में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं था। यहां अन्याय करके केवल दुर्योध नही नही गिराया गया है, (मेरा भी अपमान किया गया है) शरणागत की दुर्बलता के कारण शरण देने वाले का तिरस्कार किया जा रहा है । ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौडे़। उस समय अपनी भुजाएं ऊपर उठाये हुए महात्मा बलरामजी का रूप अनेक धातुओं के कारण विचित्र शोभा पाने वाले महान श्वेतपर्वत के समान जान पड़ता था । महाराज ! हलधर को आक्रमण करते देख अर्जुन सहित अस्त्रवेत्ता भाइयों के साथ खड़े हुए बलवान भीमसेन तनिक भी व्यथित नहीं हुए।। उस समय विनयशील, बलवान श्रीकृष्ण ने आक्रमण करते हुए बलरामजी को अपनी मोटी एवं गोल-गोल भुजाओं क्ष्द्वारा बडत्रे प्रयत्न से पकड़ा । राजेन्द्र ! वे श्याम-गौर यदुकुलतिलक दोनों भाई परस्पर मिले हुए कैलास और कज्जल पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। राजन ! संध्याकाल के आकाश में जैसे चन्द्रमा और सूर्य उदित हुए हों, वैसे ही उस रणक्षेत्र में वे दोनों भाई सुशोभित हो रहे थे । उस समय श्रीकृष्ण ने रोष से भरे हुए बलरामजी को शान्त करते हुए से कहा- भैया ! अपनी उन्नति छः प्रकार की होती है -अपनी बुद्धि, मित्र की वृद्धि और मित्र के मित्र की वृद्धि। तथा शत्रु पक्ष में इसके विपरीत स्थिति अर्थात शत्रु की हानि, शत्रु के मित्र की हानि तथा शत्रु के मित्र के मित्र की हानि । अपनी और अपने मित्र की यदि इसके विपरीत परिस्थिति हो तो मन-ही-मन ग्लानि का अनुभव करना चाहिये और मित्रों की उस हानि के निवारक के लिये शीघ्र प्रयत्नशील होना चाहिये । शुद्ध पुरूषार्थ का आश्रय लेने वाले पाण्डव हमारे सहज मित्र हैं। बुआ के पुत्र होने के कारण सर्वथा अपने हैं। शत्रुओं ने इनके साथ बहुत छल-कपट किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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