महाभारत शल्य पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-16

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अष्टपन्चाशत्तम (58) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: अष्टपन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत तथा अर्जुन के संकेत के अनुसार भीमसेन का गदा से दुर्योधन की जांघें तोड़ कर उसे धराशायी करना एवं भीषण उत्पातों का प्रकट होना

संजय कहते हैं-राजन् ! कुरुकुल के उन दोनों प्रमुख वीरों के उस संग्राम को उत्तरोत्तर बढ़ता देख अर्जुन ने यशस्वी भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-‘जनार्दन ! आपकी राय में इन दोनों वीरों में से इस युद्धस्थल में कौन बड़ा है अथवा किस में कौन सा गुण अधिक है ? यह मुझे बताइये’। भगवान श्रीकृष्ण बोले-अर्जुन ! इन दोनों को शिक्षा तो एक सी मिली है; परंतु भीमसेन बल में अधिक हैं और यह दुर्योधन उनकी अपेक्षा अभ्यास और प्रयत्न में बढ़ा-चढ़ा है । यदि भीमसेन धर्मपूर्वक युद्ध करते रहे तो कदापि नहीं जीतेंगे और अन्यायपूर्वक युद्ध करने पर निश्चय ही दुर्योधन का वध कर डालेंगे । हमने सुना है कि देवताओं ने पूर्वकाल में माया से ही असुरों पर विजय पायी थी और इन्द्र ने माया से ही विरोचन को परास्त किया था । बलसूदन इन्द्र ने माया से वृत्रासुर के तेज को नष्ट कर दिया था, इसलिये भीमसेन भी यहां मायामय पराक्रम का ही आश्रया लें । धनंजय ! जूए के समय भीम ने प्रतिज्ञा करते हुए दुर्योधन से यह कहा था कि ‘मैं युद्ध में गदा मारकर तेरी दोनों जांघें तोड़ डालूंगा’ । अतः शत्रु सूदन भीमसेन अपनी उस प्रतिज्ञा का पालन करें और मायावी राजा दुर्योधन को माया से ही नष्ट कर डालें । यदि ये बल का सहारा लेकर न्यायपूर्वक प्रहार करेंगे, तब राजा युधिष्ठिर पुनः बड़ी विषम परिस्थिति में पड़ जायंगे । पाण्डुनन्दन ! मैं पुनः यह बात कहे देता हूं, तुम उसे ध्यान देकर सुनो। धर्मराज के अपराध से हम लोगों पर फिर भय आ पहुंचा है । महान् प्रयास करके भीष्म आदि कौरवों को मारकर विजय एवं श्रेष्ठ यश की प्राप्ति की गयी और वैरका पूरा-पूरा बदला चुकाया गया था। इस प्रकार जो विजय प्राप्त हुई थी, उसे उन्होंने फिर संशय में डाल दिया है । पाण्डुनन्दन ! एक की ही हार-जीत से सबकी हार-जीत की शर्त लगाकर जो इन्होंने इस भयंकर युद्ध को जूए का दांव बना डाला, यह धर्मराज की बड़ी भारी नासमझी है । दुर्योधन युद्ध की कला जानता है, वीर है और एक निश्चय पर डटा हुआ है। इस विषय में शुक्राचार्य का कहा हुआ यह एक प्राचीन शलोक सुनने में आता है, जो नीति शास्त्र के तात्तिवक अर्थ से भरा हुआ है, उसे सुना रहा हूं, मेरे कहने से वह शलोक सुनो । ‘मरने से बचे हुए शत्रुगण यदि युद्ध में जान बचाने की इच्छा से भाग गये हों और पुनः युद्ध के लिये लौटने लगे हों तो उनसे डरते रहना चाहिये; क्योंकि वे एक निश्चय पर पहुंचे हुए होते हैं ( उस समय वे मृत्यु से भी नहीं डरते हैं )’। धनंजय ! जो जीवन की आशा छोड़कर साहसपूर्वक युद्ध में कूद पड़े हों, उनके सामने इन्द्र भी नहीं ठहर सकते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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