महाभारत शल्य पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-27

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पन्चचत्वारिंश (45) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: पन्चचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

स्कन्द का अभिषेक और उनके महापार्षदों के नाम, रूप आदि का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर बृहस्पतिजी ने सम्पूर्ण अभिषेक सामग्री का संग्रह करके शास्त्रीय पद्धति से प्रज्वलित की हुई अग्नि में विधिपूर्वक होम किया । तत्पश्चात् हिमवान् के दिये हुए उत्तम मणियों से सुशोभित तथा दिव्य रत्नों से जटित पवित्र सिंहासन पर कुमार कार्तिकेय विराजमान हुए। उस समय उनके पास सम्पूर्ण मांगलिय उपकरणों के साथ विधि एवं मन्त्रोच्चारणपूर्वक अभिषेक द्रव्य लेकर समस्त देवता वहां पधारे । महापराक्रमी इन्द्र और विष्णु, सूर्य और चन्द्रमा, धाता और विधाता, वायु और अग्नि, पूषा, भग, अर्यमा, अंश, विवस्वान्, मित्र और वरुण के साथ बुद्धिमान रुद्रदेव, एकादश रुद्रगण, आठ वसु, बारह आदित्य और दोनों अश्विनी कुमार-ये सब के सब प्रभावशाली कुमार कार्तिकेय को घेर कर खड़े हुए । विश्वेदेव, मरुद्रण, साध्यगण, पितृगण, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, राक्षस, नाग, असंख्य देवर्षि, ब्रह्मर्षि, वनवासी मुनि वालखिल्य, वायु पीकर रहले वाले ऋषि, सूर्य की किरणों का पान करने वाले मुनि, भृगु और अंगिरा के वंश में उत्पन्न महर्षि, महात्मा यतिगण, सर्प, विद्याधर तथा पुण्यात्मा योग सिद्ध मुनि भी कार्तिकेय को घेर कर खड़े हुए । प्रजानाथ ! ब्रह्माजी, पुलस्त्य, महातपस्वी पुलह, अंगिरा, कश्यप, अत्रि, मरीचि, भृगु, क्रतु, हर, वरुण, मनु, दक्ष, ऋतु, ग्रह, नक्षत्र, मूर्तिमती सरिताएं, मूर्तिमान् सनातन वेद, समुद्र, सरोवर, नाना प्रकार के तीर्थ, पृथिवी, द्युलोक, दिशा, वृक्ष, देवमाता अदिति, ही, श्री, स्वाहा, सरस्वती, उमा, शची, सिनीवाली, अनुमति, कुहू, राका, धिषणा, देवताओं की अन्यान्य पत्नियां, हिमवान्, विन्ध्य, अनेक शिखरों से सुशोभित मेरुगिरि, अनुचरों सहित ऐरावत, कला, काष्ठा, मास, एक्ष, ऋतु, रात्रि, दिन, अश्वों में श्रेष्ठ उच्चैःश्रवा, नागराज वासुकि, अरुण, गरुड़, ओषधियों सहित वृक्ष, भगवान धर्मदेव, काल, यम, मृत्यु तथा यम के अनुचर-ये सब के सब वहां एक साथ पधारे थे । संख्या में अधिक होने के कारण जिनके नाम यहां नहीं बताये गये हैं, वे सभी नाना प्रकार के देवता कुमार कार्तिकेय का अभिषेक करने के लिये इधर-उधर से वहां आ पहुंचे थे । राजन् ! उस समय उन सभी देवताओं ने अभिषेक के पात्र और सब प्रकार के मांगलिक द्रव्य हाथों में ले रक्खे थे । नरेश्वर ! हर्ष से उत्फुल्ल देवता पवित्र एवं दिव्य जल वाली सातों सरस्वती नदियों के जल से भरे हुए, दिव्य सामग्रियों से सम्पन्न, सुवर्णमय कलशों द्वारा असुर-भयंकर महामनस्वी कुमार कार्तिकेय का सेनापति के पद पर अभिषेक करने लगे । महाराज ! जैसे पूर्वकाल में जल के स्वामी वरुण का अभिषेक किया गा था, उसी प्रकार सर्वलोक पितामह भगवान ब्रह्मा, महातेजस्वी कश्यप तथा दूसरे विश्वविख्यात महर्षियों ने कार्तिकेय का अभिषेक किया । उस समय भगवान ब्रह्मा ने संतुष्ट होकर कार्तिकेय को वायु के समान वेगशाली, इच्छानुसार शक्तिधारी, बलवान् और सिद्ध चार महान् अनुचर प्रदान किये, जिन में पहला नन्दिसेन, दूसरा लोहिताक्ष, तीसरा परम प्रिय घंटाकर्ण और उनका चैथा अनुचर कुमुदमाली के नाम से विख्यात था । राजेन्द्र ! फिर वहां महातेजस्वी भगवान शंकर ने स्कन्द को एक महान् असुर समर्पित किया, जो सैकड़ों मायाओं को धारण करने वाला, इच्छानुसार बल पराक्रम से सम्पन्न तथा दैत्यों का संहार करने में समर्थ था । उसने देवासुर संग्राम में अत्यन्त कुपित होकर भयानक कर्म करने वाले चैदह प्रयुत दैत्यों का केवल अपनी दोनों भुजाओं से वध कर डाला था ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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