महाभारत शल्य पर्व अध्याय 40 श्लोक 21-32

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चत्वारिंश (40) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद

फिर उन्होंने अपनी गौ नन्दिनी से कहा-‘तुम भयंकर भील जाति के सैनिकों की सृष्टि करो’। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर उनकी होम धेनु ने ऐसे पुरुषों को उत्पन्न किया, जो देखने में बड़े भयानक थे । उन्होंने विश्वामित्र की सेना पर आक्रमण करके उनके सैनिकों को सम्पूर्ण दिशाओं में मार भगाया। गाधिनन्दन विश्वामित्र ने जब यह सुना कि मेरी सेना भाग गयी तो तप को ही अधिक प्रबल मानकर तपस्या में ही मन लगाया । राजन् ! उन्होंने सरस्वती के उस श्रेष्ठ तीर्थ में चित्त को एकाग्र करके नियमों और उपवासों के द्वारा अपने शरीर को सुखाना आरम्भ किया । वे कभी जल पीकर रहते, कभी वायु को ही आहार बनाते और कभी पत्ते चबा कर रहते थे। सदा भूमि की वेदी बना कर उस पर सोते और तपस्या सम्बन्धी जो अन्य सारे नियम हैं, उनका भी पृथक्-पृथक् पालन करते थे । देवताओं ने उनके व्रत में बारंबार विघ्न डाला; परंतु उन महात्मा की बुद्धि कभी नियम से विचलित नहीं होती थी । तदनन्तर महान् प्रयत्न के द्वारा नाना प्रकार की तपस्या करके गाधिनन्दन विश्वामित्र अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे । विश्वामित्र को ऐसी तपस्या से युक्त देख महातेजस्वी एवं वरदायक ब्रह्माजी ने उन्हें वर देने का विचार किया । राजन् ! तब उन्होंने यह वर मांगा कि ‘मैं ब्राह्मण हो जाऊं।’ सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने उन्हें ‘तथास्तु’ कहकर वह वर दे दिया । उस उग्र तपस्या के द्वारा ब्राह्मणत्व पाकर सफल मनोरथ हुए महायशस्वी विश्वामित्र देवता के समान समस्त भूमण्डल में विचरने लगे । राजन् ! बलरामजी ने उस श्रेष्ठ तीर्थ में उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें दूध देने वाली गौएं, वाहन, शय्या, वस्त्र, अलंकार तथा खाने-पीने के सुन्दर पदार्थ प्रसन्नतापूर्वक दिये। फिर वहां से वे बक के आश्रम के निकट गये, जहां दल्भ पुत्र बक ने तीव्र तपस्या की थी ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदा पर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में सार स्वतोपाख्यान विषयक चालीसवां अध्याय पूरा हुआ ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।