महाभारत शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 22-42

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अष्टात्रिंश (38) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद


भरतनन्दन ! यज्ञपरायण उद्दालक ऋषि के यज्ञ में भी सरस्वती का आवाहन किया गया। वे शीघ्रगामिनी सरस्वती हिमालय से निकल कर उस यज्ञ में आयी थी । राजन् ! उन दिनों समृद्धिशाली एवं पुण्यमय उत्तर कोसल प्रान्त में सब ओर से मुनिमण्डली एकत्र हुई थी। उसमें यज्ञ करते हुए महात्मा उद्दालक ने पूर्वकाल में सरस्वती देवी का ध्यान किया। तब मुनि का कार्य सिद्ध करने के लिये सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती उस देश में आयीं । वहां वल्कल और मृगचर्मधारी मुनियों से पूजित होने वाली सरस्वती का नाम हुआ मनोरमा; क्योंकि उन्होंने मन के द्वारा उन का चिन्तन किया था । राजर्षियों से सेवित पुण्यमय ऋषभद्वीप तथा कुरुक्षेत्र में जब महात्मा राजा कुरु यज्ञ कर रहे थे, उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ महाभागा सरस्वती वहां आयी थीं; उनका नाम हुआ सुरेणु । गंगा द्वार में यज्ञ करते समय दक्ष प्रजापति ने जब सरस्वती का स्मरण किया था, उस समय भी शीघ्रगामिनी सरस्वती वहां बहती हुई सुरेणु नाम से ही विख्यात हुई। राजेन्द्र ! इसी प्रकार महात्मा वसिष्ठ ने भी कुरुक्षेत्र में दिव्यसलिला सरस्वती का आवाहन किया था, जो ओघवती के नाम से प्रसिद्ध हुई । ब्रह्माजी ने एक बार फिर पुण्यमय हिमालय पर्वत पर यज्ञ किया था। उस समय उनके आवाहन करने पर भगवती सरस्वती ने विमलोदका नाम से प्रसिद्ध होकर वहां पदार्पण किया था । फिर ये सातों सरस्वतियां एकत्र होकर उस तीर्थ में आयी थीं, इसीलिये इस भूतल पर ‘सप्तसारस्वत तीर्थ के नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई । इस प्रकार सात सरस्वती नदियों का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन किया गया है। इन्हीं से सप्तसारस्वत नामक परम पुण्यमय तीर्थ का प्रादुर्भाव बताया गया है । राजन् ! कुमारावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा प्रतिदिन सरस्वती नदी में स्नान करने वाले मंकणक मुनि का महान् लीलामय चरित्र सुनो । भरतनन्दन ! महाराज ! एक समय की बात है, कोई सुन्दर नेत्रों वाली अनिन्द्य सुन्दरी रमणी सरस्वती के जल में नंगी नहा रही थी। दैव योग से मंकणक मुनि की दृष्टि उस पर पड़ गयी और उनका वीर्य स्खलित होकर जल में गिर पड़ा । महातपस्वी मुनि ने उस वीर्य को एक कलश में ले लिया। कलश में स्थित होने पर वह वीर्य सात भागों में विभक्त हो गया । उस कलश में सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत मरुद्रण थे। उन के नाम इस प्रकार हैं-वायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेता और शक्तिशाली वायुचक्र। ये उन्चास मरुद्रणों के जन्मदाता ‘मरुत्’ उत्पन्न हुए थे । राजन् ! महर्षि मंकणक का यह तीनों लोकों में विख्यात अदभुत चरित्र जैसा सुना गया है, इसे तुम भी श्रवण करो। वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है । नरेश्वर ! हमारे सुनने में आया है कि पहले कभी सिद्ध मंकणक मुनि का हाथ किसी कुश के अग्रभाग से छिद गया था, उससे रक्त के स्थान पर शाक का रस चूने लगा था । वह शाक का रस देखकर मुनि हर्ष के आवेश से मतवाले हो नृत्य करने लगे। वीर ! उनके नृत्य में प्रवृत्त होते ही स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के प्राणी उनके तेज से मोहित होकर नाचने लगे । राजन् ! नरेश्वर ! तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपोधन महर्षियों ने ऋषि के विषय में महादेवजी से निवेदन किया-‘देव ! आप ऐसा कोई उपाय करें, जिससे ये मुनि नृत्य न करें’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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