महाभारत शल्य पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-19

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षट्त्रिंश (36) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


उदपान तीर्थ की उत्पत्ति की तथा त्रित मुनि के कूप में गिरने, वहां यज्ञ करने और अपने भाइयों को शाप देने की कथा

वैशम्पायनजी कहते हैं-महाराज ! उस चमसोदेद तीर्थ से चल कर बलरामजी यशस्वी त्रितमुनि के उदपान तीर्थ में गये, जो सरस्वती नदी के जल में स्थित है । मुसलधारी बलरामजी ने वहां जल का स्पर्श, आचमन एवं स्नान करके बहुत सा द्रव्य दान करने के पश्चात् ब्राह्मणों का पूजन किया। फिर वे बहुत प्रसन्न हुए । वहां महातपस्वी त्रितमुनि धर्मपरायण होकर रहते थे। उन महात्मा ने कुएं में रहकर ही सोमपान किया था । उनके दो भाई उस कुएं में ही उन्हें छोड़ कर घर को चले गये थे। इससे ब्राह्मण श्रेष्ठ त्रित ने दोनों को शाप दे दिया था । जनमेजय ने पूछा-ब्रह्मन् ! उदपान तीर्थ कैसे हुआ ? वे महातपस्वी त्रितमुनि उसमें कैसे गिर पड़े और द्विज श्रेष्ठ ! उनके दोनों भाइयों ने उन्हें क्यों वहीं छोड़ दिया था ? क्या कारण था, जिससे वे दोनों भाई उन्हें कुएं में ही त्याग कर घर चले गये थे ? वहां रह कर उन्होंने यज्ञ और सोमपान कैसे किया ? ब्रह्मन् ! यदि यह प्रसंग मेरे सुनने योग्य समझें तो अवश्य मुझे बतावें । वैशम्पायनजी ने कहा-राजन् ! पहले युग में तीन सहोदर भाई रहते थे। वे तीनों ही मुनि थे। उनके नाम थे एकत, द्वित और त्रित। वे सभी महर्षि सूर्य के समान तेजस्वी, प्रजापति के समान संतानवान् और ब्रह्मवादी थे। उन्होंने तपस्या द्वारा ब्रह्मलोक पर विजय प्राप्त की थी । उनकी तपस्या, नियम और इन्द्रियनिग्रह से उनके धर्म परायण पिता गौतम सदा ही प्रसन्न रहा करते थे । उन पुत्रों की त्याग तपस्या से संतुष्ट रहते हुए वे पूजनीय महात्मा गौतम दीर्घकाल के पश्चात् अपने अनुरूप स्थान ( स्वर्ग लोक ) में चले गये । राजन् ! उन महात्मा गौतम के यजमान जो राजा लोग थे, वे सब उनके स्वर्गवासी हो जाने पर उनके पुत्रों का ही आदर-सत्कार करने लगे । नरेश्वर ! उन तीनों में भी अपने शुभ कर्म और स्वाध्याय के द्वारा महर्षि त्रित ने सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया ! जैसे उनके पिता सम्मानित थे, वैसे ही वे भी हो गये । महान् सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा सभी महर्षि भी महाभाग त्रित का उनके पिता के तुल्य ही सम्मान करते थे । राजन् ! एक दिन की बात है, उनके दोनों भाई एकत और द्वित यज्ञ और धन के लिये चिन्ता करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम लोग त्रित को साथ लेकर यजमानों का यज्ञ करावें और दक्षिणा के रूप में बहुत से पशु प्राप्त करके महान् फलदायक यज्ञ का अनुष्ठान करें और उसी में प्रसन्नतापूर्वक सोमरस का पान करें । राजन् ! ऐसा विचार करके उन तीनों भाइयों ने वही किया। वे सभी यजमानों के यहां पशुओं की प्राप्ति के उद्देश्य से गये और उन से विधिपूर्वक यज्ञ करवा कर उस याज्य कर्म के द्वारा उन्होंने बहुतेरे पशु प्राप्त कर लिये। तत्पश्चात् वे महात्मा महर्षि पूर्व दिशा की ओर चल दिये । महाराज ! उनमें त्रित मुनि तो प्रसन्नतापूर्वक आगे-आगे चलते थे और एकत तथा द्वित पीछे रहकर पशुओं को हांकते जाते थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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