महाभारत विराट पर्व अध्याय 32 श्लोक 17-30

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

महाभारत: विराट पर्व द्वात्रिंश अध्याय श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद

पाण्डुनन्दन धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी भाइयों सहित व्यूह रचना करके राजा विराट के लिये त्रिगर्तों के साथ युद्ध किया। उन्होंने अपने आपको श्येन (बाज) पक्षी के रूपउ में उपस्थित करके उसकी चोंच का स्थान ग्रहण किया। नकुल और सहदेव दोनों पंखों के रूप में हो गये। भीमसेन पूँछ के सथान मे हुए। कुनतीपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुओं के एक सहस्त्र सैनिकों का संहार कर डाला। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर भीमसेन वे अत्यन्त कुपित हो दो हतार रथियों को परलोक पहुँचा दिया। नकुल ने तीव सौ और सहदेव ने चार सौ सैनिकों को मार डाला। आकाशचारी पक्षी भी बाणसमूहों से अत्यन्त उद्विग्न होकर इधर-उधर बैठ गये। उनका आकाश में उड़ना और दूर तक देखना भी बंद हो गया। परिघ की सी मोटी बाँहों वाले सूरमां कुपित हो एक दूसरे पर घातक प्रहार करते हुण् भी सच्चे शूरवीरों को युद्ध से विमुख नहीं कर पाते थे। इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक सौ तथा विशालाक्ष (मदिराक्ष) चार सौ योद्धाओं को मारकर उनकी भारी सेना में घुस गये। वे दोनों महारथी थे। उस विशाल ोना में घुसे हुए और अत्यन्त क्रुद्ध हुए उन बलवान् एवं मनस्वी वीरों ने उस सारी सेना को मोहित कर दिया। वे दोनों उन त्रिगर्त सैनिकों से एक दूसरे के केश पकड़-पकड़ तथा रथों पर बैइे हुण् रथियों को गिरा-गिराकर युद्ध करने लगे। फिर उन दोनों ने त्रिगर्तों की रथसेना को लक्ष्य बनाकर उसमें प्रवेश किया। सूर्यदत्त ने आगे की ओर से आक्रमण किया और मदिराक्ष ने पीछे की ओर से। रथियों में श्रेष्ठ राजा विराट रथ के द्वारा विविध मार्गों से चलते- अनेक प्रकार के रणकौशल दिखाते हुए उस युद्ध में त्रिगर्तों के पाँच सौ रथी, आइ सौ घुड़सवार तथा पाँच महारथियों को मार गिराने के पश्चात् स्वर्णभूषित रथ पर बैठे हुए सुशर्मा पर धावा किया। वे दोनों महान् बलवान् और महामनस्वी वीर गर्जते हुए एक दूसरे से इस प्रकार भिड़े, मानो गोशाला में दो साँड़ लड़ रहे हों। त्रिगर्तराज सुशर्मा पर युद्ध का घोर उन्माद छाया हुआ था। उस नरश्रेष्ठ वीर ने राजा विराअ का द्वैरथ युद्ध के द्वारा सामना किया। क्रोध में भरे हुए वे दोनों रथी अपना-अपना रथ बढ़़ाकर निकट आ गये और शीघ्रतापूर्वक एक दूसरे पर बाणों की झड़ी लगाने लगे, मानो दो मेघ जल की धाराएँ बरसा रहे हों।। दोनों का एक दूसरे के प्रति क्रोध और अमर्ष बढ़ा हुआ था। दोनों ही अस्त्रविद्या में निपुण थे और दोनों ने ही तलवार, शक्ति तथा गदा भी ले रक्खी थी। उस समय दोनों तीखे बाणों से परस्पर प्रहार करते हुए रणभूमि में विचरने लगे। इसी समय राजा विराट ने सुशर्मा को दस बाणों से बींध डाला और पाँच-पाँच बाणों से उसके चारों घोड़ों को भी घायल कर दिया। इसी प्रकार महान् अस्त्रवेत्ता सुशर्मा ने भी रणोन्मत्त होकर पचास तीचो बाणो से मत्स्यराज विराट को बींध डाला। महाराज ! तदनन्तर सैनिकों के पैरों से इतनी धूल उड़ी कि म्त्स्यनरेश तथा सुशर्मा दोनों की सेनाएँ उससे आचछादित हो गयीं और एक दूसरे के विषय में यह भी न जान सकी कि कौन कहाँ क्या कर रहा है ?

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण के समय होने वाले विराट और सुशर्मा के युद्ध के विषय में बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। (दक्षिणात्य अधिक पाठ के 4 श्लोक मिलाकर कुल 34 श्लोक हैं)




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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