महाभारत वन पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-20

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षडशीतितम (86) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर का धौम्य मुनि से पुण्य तपोवन, आश्रय एवं नदी आदि के विषय में पूछना

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! अपने भाइयों तथा परम बुद्धिमान् देवर्षि नारद की सम्मति जानकर राजा युधिष्ठिर ने पितामह के समान प्रभावशाली पुरोहित धौम्यजी से कहा। ‘ब्रह्मन् ! मैंने अस्त्रप्राप्ति के लिये विजयी सत्यपराक्रमी, महामना एवं प्रतापी पुरूषसिंह महाबाहु अर्जुन को निर्वासित कर रखा है।। ‘वह वीर मुझमें अनुराग रखनेवाला, साम्थ्र्यशाली, तपस्या का धनी, पुण्यात्मा और अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान् में भगवान् श्रीकृष्ण की भांति प्रभावशाली है। ‘विप्रवर ! मैं इन दोनों कृष्णनामधारी वीरों को शत्रुओं का संहार करने में समर्थ और महापराक्रमी समझता हूं। महाप्रतापी वेदव्यासजी की भी यही धारणा है। ‘कमल के समान नेत्रोंवाले भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन तीन युगों से सदा साथ रहते आये हैं। नारदजी भी इन दोनों को इसी रूप में जानते हैं और सदा मुझसे इस बात की चर्चा करते रहते हैं। ‘मैं भी ऐसा ही समझता हूं कि श्रीकृष्ण और अर्जुन सुप्रसिद्ध नर-नारायण ऋषि हैं। अर्जुन को शक्तिशाली समझ कर ही मैंने उसे दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये भेजा है। देवपुत्र अर्जुन इन्द्र से कम नहीं हैं। यह जानकर ही मैंने उसे देवराज इन्द्र का दर्शन करने और उनसे दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये भेजा है। भीष्म और द्रोण अतिरथी वीर हैं। कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा को भी जीतना कठिन है। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने इन सभी महारथियों को के लिये वरण कर लिया है। ‘वे सब-के-सब वेदज्ञ, शूरवीर, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, महाबली और सदा अर्जुन के साथ युद्ध की अभिलाषा रखनेवाले हैं। वह सूपपुत्र महारथी कर्ण भी दिव्यास्त्रों का ज्ञाता है। ‘काल ने उसे प्रलयकालीन संवर्तक नामक महान् अग्नि के समान उत्पन्न किया है। अस्त्रों का वेग ही उसका वायुतुल्य बल है। बाण ही उसकी ज्वाला हैं। हथेली से होनेवाली आवाज़ ही उस हाहक अग्नि का शब्द है। युद्ध में उठनेवाली धूल ही उस कर्णरूपी अग्नि का धूम है। अस्त्रों की वर्षा ही उसी लपटों का लगना है। धृतराष्ट्र पुत्ररूपी वायु का सहारा पाकर वह और भी उद्धत एवं प्रज्वलित हो उठा है। इसमें संदेह नहीं कि वह मेरी सेना को सूखे तिनकों की राशि के समान भस्म कर डालेगा। ‘उस आग को युद्ध में अर्जुननामक महामेघ ही बुझा सकेगा। श्रीकृष्णरूपी वायु का सहारा पाकर ही वह मेघ उठेगा। दिव्यास्त्रों का प्रकाश ही उसमें बिजली की चमक होगी । रथ के श्वेत घोड़े ही उसके निकट उड़नेवाली बकपंक्तियों की भांति सुशोभित होंगे। गाण्डीव धनुष ही इन्द्रधनुष के समान दुःसह दृश्य उपस्थित करनेवाला होगा। वह क्रोध में भरकर बाणरूपी जल की धारा से कर्णरूपी प्रज्वलित अग्नि को निश्चय ही शांत कर देगा। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पानेवाला अर्जुन साक्षात् इन्द्र के सारे दिव्यास्त्र प्राप्त करेगा। ‘धतराष्ट्र-पक्ष के उक्त सभी महारथियों को जीनते के लिये वह अकेला ही पर्याप्त होगा; ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। अन्यथा अत्यन्त कृतार्थ का अनुभव करनेवाले शत्रुओं को दबाने का और कोई उपाय नहीं है। ‘अतः हम शत्रुहन्ता पाण्डुनन्दन अर्जुन को अवश्य ही सब दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके आया हुआ देखेंगे; क्योंकि वह वीर किसी कार्य-भार को उठाकर उसे पूर्ण किये बिना कभी शांत नहीं होता। ‘नरश्रेष्ठ ! इस काम्यवन में वीर अर्जुन के बिना द्रौपदीसहित हम सब पाण्डवों का मन बिल्कुल नहीं लग रहा है। ‘इसीलिये आप हमें किसी ऐसे रमणीय वन का पता बतायें जो बहुत अच्छा, पवित्र, प्रचुर अन्न और फल से सम्पन्न तथा पुण्यात्मा, पुरूषोंद्वारा सेवित हो। ‘जहां हमलोग कुछ काल रहकर सत्यपराक्रमी वीर अर्जुन के आगमन की उसी प्रकार प्रतीक्षा करें, जैसे वृष्टि की इच्छा रखने वाले किसान बादलों की राह देखते हैं। तों का पता बताइये। अर्जुन के बिना अब काम्यकवन में रहना हमें अच्छा नहीं लगता; इसीलिये अब दूसरी दिशा को चलेंगे’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा में धौम्य की तीर्थयात्राविषयक छियासीवां अध्याय पुरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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