महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 67-93

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पञ्चाशीतितम (85) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पञ्चाशीतितम अध्याय: श्लोक 67-93 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर तीर्थयात्री परम बुद्धिमान् महादेवजी के मुञजवट नामक तीर्थ को जाय। भरतनन्दन ! उस तीर्थ में महादेवजी के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके परिक्रमा करने से मनुष्य गणपति पद प्राप्त कर लेता है। उक्त तीर्थ में जाकर गंगा में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। राजेन्द्र ! तत्पश्चात् महर्षियों द्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थ में जाय। जहां ब्रह्मा आदि देवता, दिशा, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, लोकसम्मानित पितर, सनत्कुमार आदि महर्षि, अंगिरा आदि निर्मल ब्रह्मर्षि, नाग सुर्पण, सिद्ध, सूर्य, नदी, समुद्र, गन्धर्व, अप्सरा तथा ब्रह्माजी भगवान् विष्णु निवास करते हैं। वहां तीन अग्निकुण्ड हैं, जिसके बीच से सब तीर्थों से सम्पन्न गंगा वेगपूर्वक बहती है। विभुवनविख्यात सूर्यपुत्री लोकपावनी यमुनादेवी वहां गंगाजी के साथ मिली हैं। गंगा और यमुना का मध्यभाग पृथ्वी का जघन माना गया है। ऋषियों ने प्रयाग को जधनस्थानीय उपस्थ बताया है। प्रतिष्ठानपुर (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवतीतीर्थ यह ब्रह्माजी की वेदी है। युधिष्ठिर ! उस तीर्थ में वेद और यज्ञ मूर्तिमान होकर रहते हैं और प्रजापति की उपासना करते हैं। तपोधन ऋषि, देवता और चक्रधर नृपतिगण वहां यज्ञोद्वारा भगवान् का यजन करते हैं। भरत-नन्दन ! इसीलिये तीनों लोकों में प्रयाग को सब तीर्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ एवं पुण्यतम बताते हैं। उस तीर्थ में जाने से अथवा उसका नाम लेने मात्र से भी मनुष्य मृत्युकाल के भय और पाप से मुक्त हो जाता है। भरतनन्दन ! यह देवताओं की संस्कार की हुई यज्ञभूमि है। यहां दिया हुआ थोड़ा सा भी दान महान् होता है। तात! तुम्हें किसी वैदिक वचन से या लौकिक वचन से भी प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिये। कुरूनन्दन ! साठ करोड़ दस हजार तीर्थों का निवास केवल इस प्रयाग में ही बताया गया है। चारों विद्याओं के ज्ञान से जो पुण्य होता है तथा सत्य बोलनेवाले व्यक्तियों को जिस पुण्य होता है, तथा सत्य बोलनेवाले व्यक्तियों को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह सब गंगा-यमुना के संगम में स्नान करनेमात्र प्राप्त हो जाता है। प्रयाग में भोगवती नाम से प्रसिद्ध वासुकि नाग का उत्तम तीर्थ है। जो वहां स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कुरूनन्दन ! वहीं त्रिलोकविख्यात हंसप्रपतन नामक तीर्थ है और गंगा के तटपर दशाश्वमेधिक तीर्थ है। गंगा में जहां कहीं भी स्नान किया जाय, जब कुरूक्षेत्र के स्मान पुण्यदायिनी है। कनखल में गंगा का स्नान विशेष माहात्म्य रखता है और प्रयाग में गंगा-स्नान का माहात्म्य सबकी अपेक्षा बहुत अधिक है। जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगास्नान किया जाय तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर का महत्व है। द्वापर में कुरूक्षेत्र विशेष पुण्यदायक है और कलियुग में गंगा की अधिक महिमा बतायी गयी है। पुष्कर में तप करे, महालय में दान दे, मलय पर्वत में अग्नि पर आरूढ हो और भृगुतुंग में उपवास करे। पुष्कर में, कुरूक्षेत्र में, गंगा में तथा प्रयाग आदि मध्यवर्ती तीर्थों में स्नान करके मनुष्य अपने आगे-पीछे की सात-सात पीढि़यों का उद्धार कर दता है। गंगाजी का नाम लिया जाय तो वह सारे पापों का धोबहाकर पवित्र कर देती है। दर्शन करने पर कल्याण प्रदान करती है तथा स्नान और जलपान करने पर वह मनुष्य की सात पीढि़यों को पावन बना देती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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