महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 47-71

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्र्यशीतितम (83) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 47-71 का हिन्दी अनुवाद

कपिला-तीर्थ मे जाकर ब्रह्मचर्य के पालनपूर्वक एकाग्रचित हो वहां स्नान और देवता-पितरों का पूजन करके मानव सहस्त्र कपिला गौओं के दान का फल प्राप्त करता है। मन को वश में करके सूर्यतीर्थ में जाकर स्नान और देवता पितरों का अर्चन करके उपवास करनेवाला मनुष्य अग्ष्टिोमयज्ञ का फल पाता और सूर्यलाक में जाता है। तदनन्तर तीर्थसेवी क्रमशः गोभवन तीर्थ में जाकर वहां स्नान करे। इससे उसको सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। कुरूश्रेष्ठ ! तीर्थयात्री पुरूष शंखिनीतीर्थ में जाकर वहां देवीतीर्थ में स्नान करने से उत्तम रूप प्राप्त करता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर अरन्तुक नामक द्वारपाल के पास जाय। महात्मा यक्षराज कुबेर का वह तीर्थ सरस्वती नदी में है। राजन् ! वहां स्नान करने से मनुष्य को अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर श्रेष्ठ मानव ब्रह्मवर्ततीर्थ को जाय। ब्रह्मावर्त में स्नान करके मनुष्य ब्रह्मलोक का प्राप्त कर लेता है। राजेन्द्र ! वहां से परम उत्तम सुतीर्थ में जाय। वहां देवतालोग पितरों के साथ सदा विद्यमान रहते हैं। वहां पितरों और देवताओं के पूजन में तत्पर हो स्नान करे। इससे तीर्थयात्री अश्वमेधयज्ञ का फल पाता और पितृलोक में जाता है। धर्मज्ञ ! वहां अम्बुमती मंे, जो परम उत्तम तीर्थ है, जाय। भरतश्रेष्ठ ! काशीश्वर के तीर्थो में स्नान करके मनुष्य सब रोगों से मुक्त हो जाता और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। भरतवंशी महाराज ! वहीं मातृतीर्थ है, जिसमें स्नान करनेवाले पुरूष की संतति बढ़ती है और वह कभी क्षीण न होनेवाली सम्पति का उपभोग करता है। तदनन्तर नियम से रहकर नियमित भोजन करते हुए सीतवन में जाय। महाराज! वहां महान् तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। नरेश्वर ! यह तीर्थ एक बार जाने या दर्शन करने से ही पवित्र कर देता है। भारत! उसमें केशों को धो लेने मात्र ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। महाराज ! वहां श्वाविलोमापह नामक तीर्थ है। नरव्याघ्र ! उसमें तीर्थपरायण हुए विद्वान ब्राह्मण स्नान करके बड़े प्रसन्न होते हैं। भरतसत्तम ! श्वाविलोमापनयनतीर्थ में प्रणायाम (योग की क्रिया) करने से श्रेष्ठ द्विज अपने रोएं झाड़ देते हैं तथा राजेन्द्र ! वे शुद्धचित्त होकर परमगति को प्राप्त होते हैं।भूपाल ! वहीं दशाश्वमेधिक तीर्थ भी है। पुरूषसिंह ! उसमें स्नान करके मनुष्य उत्तम गति प्राप्त करता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर लोकविख्यात मानुषतीर्थ में जाय राजन् ! वहां व्याघ्र के बाणों से पीडित हुए कृष्णमृग उस सरोवर में गोते लगाकर मनुष्य शरीर पा गये थे, इसीलिये उसका नाम मानुषतीर्थ है। ब्रह्मचर्यपालनपर्वूक एकाग्रचित्त हो उस तीर्थ में स्नान करनेवाला मानव सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। राजन् ! मानुषतीर्थ से पूर्व एक कोस की दूरी पर आपगा नाम से विख्यात एक नदी है, जो सिद्धपुरूषों से सेवित है। जो मनुष्य वहां देवताओं को पितरों के उद्देश्य से भोजन कराते समय श्यामाक (सांवा) नामक अन्न देता है, उसे महान् धर्मफल की प्राप्ति होती है। वहां एक ब्राह्मण को भोजन कराने पर एक करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल मिलता है। वहां स्नान करके देवताओं और पितरों के पूजनपूर्वक एक रात निवास करने से अग्निष्टोमयज्ञ का फल मिलता है। वहां सप्तर्षिकुण्ड है। नरश्रेष्ठ महाराज! उन कुण्डों में तथा महात्मा कपित के केदारतीर्थ में स्नान करने से पुरूष को महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।