महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 122-144

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त्र्यशीतितम (83) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 122-144 का हिन्दी अनुवाद

ऋषि ने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! ब्रह्मन! मैं धर्म के मार्गपर स्थिर रहनेवाला तपस्वी हूं। मेरे हाथ से यह शाक का रस चू रहा है। क्या आप इसे नहीं देखते ? इसी को देखकर मैं महान् हर्ष से नाच रहा हूं। महर्षि राग से मोहित हो रहे थे। महादेवजी ने उनकी बात सुनते हुए हंसते हुए कहा- ‘विप्रवर ! मुझे तो यह देखकर कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखिये ।’ नरश्रेष्ठ ! निष्पाप राजेन्द्र ! ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् महादेवजी ने अगुंली के अग्रभाग से अपने अंगूठे को ठोंका। राजन् ! उनके चोट करने पर उस अंगूठे से बर्फ के समान सफेद भस्म गिरने लगा। महाराज ! यह अद्भुत बात कहकर मुनि लज्जित हो महादेवजी के चरणों मे पड़ गये और उन्होंने दूसरे किसी देवता को महादेवजी से बढकर नहीं मानने का निश्चर्य किया। वे बोले-‘भगवन् ! देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण जगत् के आश्रय आप ही हैं। त्रिशूलधारी महेश्वर ! आपने ही चराचर जीवों सहित सम्पूर्ण त्रिलोक को उत्पन्न किया है। फिर प्रलयकाल आने पर आप ही सब जीवों को अपना व्रास बना लेते हैं। देवता भी आपके स्वरूप को नहीं जान सकते, फिर मेरी तो बात ही क्या है ? ‘अनघ ! ब्रह्मा आदि सब देवता आपही में दिखायी देते हैं। इस जगत् के करने और करानेवाले सब कुछ आप ही हैं।। ‘आपके प्रसाद से सब देवता यहां निर्भय और प्रसन्न रहते हैं।’ इस प्रकार स्तुति करके ऋषि ने फिर महादेवजी से कहा- ‘महादेव ! आपकी कृपा से मेरी तपस्या नष्ट न हो।’ तब महादेवजी ने प्रसन्नचित्त हो महर्षि से कहा- ‘ब्रहान् ! मेरे प्रसाद से आपकी तपस्या हजारगुनी बढ़े। महामुने ! मैं तुम्हारे साथ इस आश्रय में रहूंगा। ‘जो सप्तसार स्वत तीर्थ में स्नान करके मेरी पूजा करेंगे, उनके लिये इहलोक और परलोक में कोई भी वस्तु दुलर्भ नहीं होगी। ‘इतना ही नहीं, वे सरस्वती के लोक में जायंगे, इसमें संशय नहीं है।’ एंसा कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर तीनों लोकों के विख्यात औशनस तीर्थ की यात्रा करे, जहां ब्रह्मा आदि देवता तथा तपस्वी ऋषि रहते हैं। भारत ! शुक्राचार्य जी का प्रिय करने के लिये भगवान् कार्तिकेय भी वहां सदा तीनों संध्याओं के समय उपस्थित रहते हैं। कपालमोचतीर्थ सब पापों से छुड़नेवाला है ! नरश्रेष्ठ ! वहां स्नान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। नरश्रेष्ठ ! वहां से अग्गितीर्थ को जाय। उसमें स्नान करने से मनुष्य अग्निलोक में जाता और अपने कुल का उद्धार कर देता हैं। भरतसत्तम ! वहीं विश्वमित्रतीर्थ है। नरश्रेष्ठ ! वहां स्नान करने से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। नरश्रेष्ठ ! ब्रह्मयोनि तीर्थ में जाकर पवित्र एवं जितात्मा पुरूष वहां स्नान करने से ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है साथ ही, अपने कुल की सात पीढि़यों तक को पवित्र कर देता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र ! तरनन्तर कार्तिकेय के त्रिभुवनविख्यात पृथूदक तीर्थ की यात्रा करे और वहां स्नान करके देवताओं तथा पितरों की पूजा में संलग्न रहे। भारत ! स्त्री हो या पुरूष, उसने मानव-बुद्धि से अनजान में या-जानबूझकर जो कुछ भी पापकर्म किया हैख् वह सब पृथूदकतीर्थ में स्नान करनेमात्र से नष्ट हो जाता है और तीर्थसेवी पुरूष को अश्वमेध यज्ञ के फल एवं स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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