महाभारत वन पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

राजा नल के आख्यान के कीर्तन का महत्व, बृहदश्व मुनि का युधिष्ठिर को आश्वासन देना तथा द्यूतविद्या और अश्वविद्या का रहस्य बताकर जाना

बृहदश्व मुनि कहते हैं-युधिष्ठिर ! जब नगर में शांति छा गयी और सब लोग प्रसन्न हो गये, सर्वत्र महान् उत्सव होने लगा, उस समय राज नल विशाल सेना के साथ जाकर दमयन्ती को विदर्भदेश से बुला लाये। दमयन्ती के पिता भंयकर पराक्रमी अप्रमेय आत्मबल से सम्पन्न थे, शत्रुपक्ष के वीरों का हनन करने में समर्थ थे। उन्होंने अपनी पुत्री दमयन्ती को बड़े सत्कार के साथ विदा किया। पुत्र और पुत्रीसहित दमयन्ती के आ जाने पर राजा नल सब बर्ताव-व्यवहार बड़े आनंद से सम्पन्न करने लगे। जैसे नन्दनवन में देवराज इन्द्र शोभा पाते हैं, उसी प्रकार वे जम्बूद्वीप के समस्त राजाओं में प्रकाशमान हो रहे थे। वे महायशस्वी नरेश अपने राज्य को पुनः वापस लेकर उसका न्यायपूर्वक शासन करने लगे। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा से युक्त विविध प्रकार के यज्ञों द्वारा विधिपूर्वक भगवान् का यजन किया। राजेन्द्र ! इसी प्रकार तुम भी पुनः अपना राज्य पाकर सुहृदोंसहित शीघ्र ही यज्ञ का अनुष्ठान करोगे। भरतश्रेष्ठ ! पुरूषोत्तम ! शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वलो महाराज नल जूआ खेलने के कारण अपनी पत्नी सहित इस प्रकार के महान् संकट में पड़ गये। पृथ्वीपते ! राजा नल ने अकेले ही यह भयंकर और महान् दुःख प्राप्त किया था; उन्हें पुनः अभ्युदय की प्राप्ति हुई। पाण्डुनन्दन ! तुम तो अपने सभी भाईयो और महारानी द्रौपदी के साथ इस महान् वन में भ्रमण करते हो और निरन्तर धर्म के ही चिन्तन में लगे रहते हो। राजन् ! महान् भाग्यशाली वेद-वेंदागों के परांगत विद्वान् ब्राह्मण सदा तुम्हारे साथ रहते हैं, फिर तुम्हारे लिये इस परिस्थिति में शोक की क्या बात है ? कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल तथा राजर्षि ऋतुपर्ण की चर्चा कलियुग के दोष का नाश करने वाली है। पुरूष को प्राप्त होने वाली सभी विषय सदा अस्थिर एवं विनाशशील है। यह सोचकर उनके मिलने या नष्ट होने पर तुम्हें जनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिये। नरेश ! इस इतिहास को सुनकर तुम धैर्य धारण करो, शोक न करो, महाराज ! तुम्‍हें संकट में पड़ने पर विशादग्रस्त नहीं होना चाहिये। जब दैव (प्रारब्ध) प्रतिकूल हो और पुरूषार्थ निष्फल हो जाय, उस समय भी सत्वगुण का आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने मन में विषाद नहीं लाते। जो राजा नल के इस महान् चरित्र का वर्णन करेंगे अथवा निरन्तर सुनेंगे, उन्हें दरिद्रता नहीं प्राप्त होगी। उनके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे वे संसार में धन्यहो जायंगे। इस प्राचीन एवं उत्तम इतिहास का सदा ही श्रवण करके मनुष्य पुत्र, पौत्र, पशु तथा मानवों में श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है। साथ ही, वह नीरोग और प्रसन्न होता है, इसमें संशय नहीं है। राजन् ! तुम जो इस भय से डर रहे हो, कि कोई द्यूत विद्याता ज्ञाता मनुष्य पुनः मुझे जूए के लिये बुलायेगा (उस दशा में पुनः पराजय का कष्ट देखना पड़ेगा) तुम्हारे इस भय को मैं दूर कर दूंगा। सत्यपराक्रमी कुन्तीनन्दन ! मैं द्यूतविद्या के सम्पूर्ण हृदय (रहस्य) को जानता हूं, तुम उसे ग्रहण कर लो। मैं प्रसन्न होकर तुम्हें बतलाता हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने प्रसन्नचित्त हो बृहदश्व से कहा-‘भगवन् ! मैं द्यूतविद्या के रहरू को यथार्थरूप से जानना चाहता हूं’।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।