महाभारत वन पर्व अध्याय 71 श्लोक 16-36

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एकोनसप्ततितम (71) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनसप्ततितम अध्याय: श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद

बाहुकने कहा- राजन् ! ललाट के एक, मस्तक में दो, पाश्र्वभाग में दो, उपपाश्र्वभाग में भी दो, छाती में दोनों और दो दो और पीठ मंे एक-इस प्रकार कुल बारह भंवरियों को पहचानकर घोड़े रथ में जोतने चाहिये। ये मेरे चुने हुए घोड़े अवश्य विदर्भदेश की राजधानी तक पहुचेंगे, इसमें संशय नहीं है। महाराज ! इन्हें छोड़कर आप जिनको भी ठीक समझें, उन्हीं को मैं रथ से दूंगा। ऋतुपर्ण बोले-बाहुक ! तुम अश्वविद्या के तत्वज्ञ और कुशल हो, अतः जिन्हें इस कार्य में समर्थ समझो, उन्हीं को शीघ्र जोतो। तब चतुर एवं कुशल राजा नल ने अच्छी जाति और उत्तम स्वभाव के चार वेगशाली घोड़ों को रथ से जोता। जुते हुए रथपर राजा ऋतुपर्ण बड़ी उतावली के साथ सवार हुए । इसलिये उनके चढ़ते ही वे उत्तम घोड़े घुटनों के बल पृथ्वी पर गिर पड़े। युधिष्ठिर ! तब नरश्रेष्ठ श्रीमहान् राजा नल के तेज और बल से सम्पन्न घोड़ों को पुचकारा। फिर अपने हाथ में बागडोर ले उन्हें काबू में करके रथ को आगे बढ़ाने की इच्दा की। वार्ष्‍णेय सारथि को रथपर बैठाकर अत्यन्त वेग का आश्रय ले उन्होंने रथ हांक दिया। बाहुक के द्वारा विधिपूर्वक हांके जाते हुए वे उत्तम अश्व रथी को मोहित से करते हुए इतने तीव्र वेग से चले, मानो आकाश में उड़ रहे हों। उस प्रकार वायु के समान वेग से रथ का वहन करनेवाले उन अश्वों को देखकर श्रीमान् अयोध्यानरेश को बड़ा विस्मय हुआ। रथ की आवाज सुनकर और घोड़ों को काबू के करने की वह कला देखकर वार्ष्‍णेय ने बाहुक के अश्व-विज्ञान पर सोचना आरम्भ किया। ‘क्या यह देवराज इन्द्र का सारथि-मातलि है ? इस वीर बाहुक में मातलिका-सा ही महान् लक्षण देता जाता है। ‘अथवा घोड़ों की जाति और उनके विषय की तात्विक बातें जाननेवाले ये आचार्य शालिहोत्र तो नहीं हैं, जो परम सुन्दर मानव शरीर धारण करके यहां आ पहुंचे हैं। ‘अथवा शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले साक्षात् राजा नल ही तो इस रूप में नहीं आ गये हैं ? अवश्य वे ही हैं, इस प्रकार वार्ष्‍णेय ने चिन्तन करना प्रारम्भ किया। ‘राजा नल इस जगत् में जिस विद्या को जानते हैं, उसी को बाहुक भी जानता है। बाहुक और नल दोनों का ज्ञान मुझे एक-सा दिखायी देता है। ‘बहुत से महात्मा प्रच्छन्न रूप धारण करके देवोचित विधि तथा शास्त्रोंक्त नियमों से युक्त होकर इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। ‘इसके शरीर की रूपहीनता को लक्ष्य करके मेरी बुद्धि में यह भेद नहीं पैदा होता कि यह नल नहीं है, परन्तु राजा नल की जो मोटाई है, उससे यह कुछ-पतला है। उससे मेरे मन में यह विचार होता है कि सम्भव है, यह नल न हो। ‘इसकी अवस्था का प्रमाण तो उन्हीं के समान है, परन्तु रूप की दृष्टि से तो अन्तर पड़ता है। फिर भी अन्ततः मैं इसी निर्णयपर पहुंचता हूं कि मेरी राय में बाहुक सर्वगुणसम्पन्न राजा नल ही हैं’। महाराज युधिष्ठिर ! इस प्रकार पुण्यश्लोक नल के सारथि वार्ष्‍णेय ने बार-बार उपर्युक्त रूप से विचार करते हुए मन-ही-मन उक्त धारणा बना ली। महाराज ऋतुपर्ण भी बाहुक के अश्वसंचालनविषयक ज्ञानपर विचार करके वार्ष्‍णेय सारथि के साथ बहुत सम्पन्न हुए। उसकी वह एकाग्रता, वह उत्साह, घोड़ों को काबू में रखनेकी वह कला और उत्तम प्रयत्न देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में ऋतुपर्ण विदर्भदेश में गमनविषयक इकहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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