महाभारत वन पर्व अध्याय 213 श्लोक 25-40

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त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 25-40 का हिन्दी अनुवाद
प्राणवायु की स्थिति का वर्णन तथा परमात्‍म – साक्षात्‍कार के उपाय

मनुष्‍य को चाहिये कि वह हल्‍का भोजन करे और अन्‍त: करण को शुद्ध रखे। रात के पहले और पिछले पहर में सदा अपना मन परमात्‍मा के चिन्‍तन में लगावे। जो इस प्रकार निरन्‍तर अपने ह्दय में परमात्‍मा के साक्षात्‍कार का अभ्‍यास करता है, वह प्रज्‍वलित दीपक के द्वारा निराकार परमेश्‍वर का साक्षात्‍कार करके तत्‍काल मुक्‍त हो जाता है । सम्‍पूर्ण उपायों से लोभ और क्रोध की वृतियों को दबाना चाहिये। संसार में ही पवित्र तप है और यही सब के लिये भवसागर से पार उतारने वाला सेतु माना गया है । सदा तप को क्रोध से, धर्म को द्वेष से, विद्या को मान-अपमान से और अपने आप को प्रमाद से बचाना चाहिये । सदा तप को क्रोध से, धर्म को द्वेष से, विद्या को मान-अपमान से और अपने आप को प्रमाद से बचाना चाहिये । क्रूरता का अभाव (दया) सबसे महान् धर्म है, क्षमा सबसे बड़ा बल है, सत्‍य सबसे उत्तम व्रत है और परमात्‍मा के तत्‍व का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है । सत्‍य बोलना सदा कल्‍याणकारी है । यथार्थ ज्ञान ही हितकारक होता है। जिससे प्राणियों का अत्‍यन्‍त हित होता है, उसे ही उत्तम सत्‍य माना गया है । जिसके सम्‍पूर्ण आयोजन कभी कामनाओं से बंधे हुए नही होते तथा जिसने त्‍याग की आग में अपना सर्वस्‍व होम दिया है, वही त्‍यागी और बुद्धिमान है । इसलिये दृशय संसार में वियोग कराने वाले और योग नाम से कहे जाने वाले इस ब्रहयोग को स्‍वयं जानना और सम्‍पादन करना चाहिये। गुरु को भी उचित है कि वह इसे अपात्र शिष्‍य के प्रति न सुनावे । किसी प्राणी की हिंसा न करे। सब में मित्रभाव रखते हुए विचरे। इस दुर्लभ मनुष्‍य जीवन को पाकर किसी के साथ वैर न करे । कुछ भी संग्रह न रखना, सभी दशाओं में अत्‍यन्‍त संतुष्‍ट रहना तथा कामना और लोलु पता को त्‍याग देना-यही परम ज्ञान है और यही सत्‍यस्‍वरुप उत्तन आत्‍म ज्ञान है । इह लोक और परलोक के समस्‍त भोगों का एवं सब प्रकार के संग्रह का त्‍याग करके शोक रहित निश्‍चल परम धाम को लक्ष्‍य बनाकर बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों का संयम करे । जो जितेन्द्रिय है, जिसने मन पर अधिकार प्राप्‍त कर लिया है तथा जो अजित पद को जीतने की इच्‍छा करता है, नित्‍य तपस्‍या में संलग्‍न रहने वाले उस मुनि का आसक्तिजनक भोगों से अलग-अनासक्‍त रहना चाहिये । जो गुण में रहता हुआ भी गुणों से रहित है, जो सर्वथा सगड़ से रहित है तथा जो एक मात्र अन्‍तरात्‍मा के द्वारा ही साध्‍य है, जिसकी उपलब्धि में अविद्या के सिवा और कोई व्‍यवधान नहीं है, वही ब्रह्म का अद्वितीय नित्‍य पद है और वही (निरतिशय) सुख है । जो मनुष्‍य दु:ख और सुख दोनों को त्‍याग देता हैं, वही अनन्‍त ब्रह्म पद को प्राप्‍त होता है। अनासक्ति के द्वारा भी उसी पद की प्राप्ति होती है । द्विज श्रेष्‍ठ । मैंने यह सब जैसा सुना है, वैसा सब का सब थोड़े में आप से कह सुनाया है। अब आप और क्‍या सुनना चाहते हैं ।

इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दौ सौ तेहरवां अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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