महाभारत वन पर्व अध्याय 187 श्लोक 51-58

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सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 51-58 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्ठ कुन्तीनन्दन! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि वह शिखर आज भी उसी नामसे प्रसिद्ध है। तदनन्तर एकटक दृष्टिवाले भगवान् मत्स्य एक साथ उन सब ऋषियोंसे बोले-'मैं प्रजापति ब्रह्मा हूं। मुझसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं उपलब्ध होती। मैंने ही मत्स्यरूप धारण करके इस महान् भयसे तुमलोगोंकी रक्षा की है। अब मनुको चाहिये कि ये देवता, असुर और मनुष्य आदि समस्त प्रजाकी, सब लोकोंकी और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि करें। 'इन्हें तीव्र तपस्याके द्वारा जगत्की सृष्टि करनेकी प्रतिभा प्राप्त हो जायगी। मेरी कृपासे प्रजाकी सृष्टि करते समय उन्हें इन्हें मोह नहीं होगा। ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य क्षणभरमें अदृश्य हो गये। तदनन्तर स्वयं वैवस्वत मनुको प्रजाओंकी सृष्टि करनेकी इच्छा हुई, किंतु प्रजाकी सृष्टि करनेमें उनकी बुद्धि मोहाच्छन्न हो गयी थी। तब उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की और महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर उन्होंने सृष्टिका कार्य आरम्भ किया। भरतकुलभूषण! फिर वे पूर्वकल्पसे अनुसार सारी प्रजाकी यथावत् सृष्टि करने लगे। इस प्रकार यह संक्षेपसे मत्स्य पुराणका वृतान्त बताया गया हैं। मेरे द्वारा वर्णित यह उपाख्यान सब पापोंको नष्ट करनेवाला है। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रारम्भसे ही मनुके इस चरित्रको सुनता हैं, वह सुखी हो सम्पर्ण मनोरथोंको पा लेता ओर सब लोकोंमें जा सकता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत मार्कण्डेय-समास्यापर्वमें मत्स्योपाख्यानविषयक एक सौ सतासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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