महाभारत वन पर्व अध्याय 185 श्लोक 20-37

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पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रयशीत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद

'किसने इन दोनोंको महाराज पृथुके यज्ञमण्डपमें घुसने दिया है ? ये दोनों जोर-जोरसे बातें करते और झगड़ते यहां किस कामसे खड़े हैं ? उस समय परम धर्मात्मा एवं सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता कणादने सब सदस्योंको बताया कि और उसीके निर्णयके लिये यहां आये हैं'। तब गौतमने सदस्यरूपसे बैठे हुए उन श्रेष्ठ मुनियोंसे कहा-'श्रेष्ठ ब्राह्मणो! हम दोनोंके प्रश्नको आपलोग सुनें। अत्रिने राजा पृथुको विधाता कहा है। इस बातकों लेकर हम दोनोंमें महान् संशय एवं विवाद उपस्थित हो गया है।' यह सुनकर वे महात्मा मुनि उक्त संशयका निवारण करनेके लिये तुरंत ही धर्मज्ञ सनत्कुमारजीके पास दौड़े गये। उन महातपस्वीने इनकी सब बातें यथार्थरूपसे सुनकर उनसे यह धर्म एवं अर्थयुक्त वचन कहा। सनत्कुमार बोले-ब्राह्मण क्षत्रियसे और क्षत्रिय ब्राह्मणसे संयुक्त हो जायं तो वे दोनों मिलकर शत्रुओंको उसी प्रकार दग्ध कर ड़ालते हैं, जैसे अग्नि और वायु परस्पर सहयोगी होकर कितने ही वनोंको भस्म कर ड़ालते हैं। राजा धर्मरूपीसे विख्यात है। वही प्रजापति, इन्द्र, शुक्राचार्य, धाता और बृहस्पति भी है। जिस राजाकी प्रजापति, विराट्, सम्राट्, क्षत्रिय, भूपति, नृप आदि शब्दोंद्वारा स्तुति की जाती है, उसकी पूजा कौन नहीं करेगा ? पुरायोनि ( प्रथम कारण ), युधाजित् ( संग्रामविजयी ), अभिया ( रक्षाके निये सर्वत्र गमन करनेवाला ), मुदित ( प्रसन्न ), भव ( ईश्वर ), स्वर्णेता ( स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला ), सहजित् ( तत्काल विजय करनेवाला ) तथा बभु्र ( विष्णु )-इन नामोंद्वारा राजाका वर्णन किया जाता है। राजा सत्यका कारण, प्राचीन बातोंको जाननेवाला तथा सत्यधर्ममें प्रवृति करानेवाला है। अधर्मसे डरे हुए ऋषियोंने अपना ब्राह्माबल भी क्षत्रियोंमें स्थापित कर दिया था। जैसे देवलोकमे सूर्य अपने तेजसे सम्पूर्ण अन्धकारका नाश करता हैं, उसी प्रकार राजा इस पृथ्वीपर रहकर अधर्मोंको सर्वथा हटा देता हैं। अतः शास्त्र-प्रमाणपर दृष्टिपात करनेसे राजाकी प्रधानता सूचित होती है। इसलिये जिसने राजाको प्रजापति बतलाया हैं, उसीका पक्ष उत्कृष्ट सिद्ध होता हैं। मार्कण्डेयजी कहते हैं-तदनन्तर एक पक्षकी उत्कृष्टता सिद्ध हो जानेपर महामना राजा पृथु बड़े प्रसन्न हुए और जिन्होंने उनकी पहले स्तुति की थी, उन अत्रि मुनिसे इस प्रकार बोले-'ब्रह्मर्षे! आपने यहां मुझे मनुष्योंमें प्रथम ( भूपाल, ) श्रेष्ठ, ज्येष्ठ तथा सम्पूर्ण देवताओंके समान बताया हैं, इसलिये मैं आपको प्रचुरमात्रामें नाना प्रकार के रत्न और धन दूंगा, सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित, सहस्त्रों युवती दासियां अर्पित करूंगा तथा दस करोड़ स्वर्णमुद्रा और दस भार सोना भी दूंगा। विप्रर्षे! ये सब वस्तुएं आपको अभी दे रहा हूं, मैं समझता हूं, आप सर्वज्ञ हैं'। तब महान् तपस्वी और तेजस्वी अत्रि मुनि राजासे समाहत हो न्यायपूर्वक मिले हुए उस सम्पूर्ण धनको लेकर अपने घरको चले गये। फिर मनपर संयम रखनेवाले वे महामुनि पुत्रोंको प्रसन्नतापूर्वक वह सारा धन बांटकर तपस्याका शुभ संकल्प मनमें लेकर वनमें ही चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके मार्कण्डेयसमास्या पर्वमें ब्राह्मणमाहात्म्यविषयक एक सौ पचासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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