महाभारत वन पर्व अध्याय 163 श्लोक 1-23

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त्रिषष्‍टयधिकशततम (163) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

धौम्यका युधिष्ठिरको मेरू पर्वत तथा उसके शिखरोंपर स्थित ब्रह्मा, विष्णु आदिके स्थानोंका लक्ष्य कराना और सूर्य-चन्द्रमाकी गति एवं प्रभावका वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं-शत्रुदमन नरेश! तदनन्तर सूर्योदय होनेपर आष्टिषेणसहित धौम्यजी नित्यकर्म पूरा करके पाण्डवोंके पास आये। तब समस्त महर्षि धौम्यने युधिष्ठिरका दाहिना हाथ पकड़कर पूर्व दिशाकी ओर देखते हुए कहा- 'महाराज! वह पर्वतराज मन्दाचल प्रकाशित हो रहा है, जो समुद्रतककी भूमिको घेरकर खडा है। 'पाण्डुनन्दन! पर्वतों, वनान्त प्रदेशों और काननोंसे सुशोभित इस पूर्व दिशाकी रक्षा इन्द्र और कुबेर करते हैं। 'तात! सब धर्मोंके ज्ञाता मनीषी महर्षि इस दिशाको देवराज इन्द्र तथा कुबेरका निवासस्थान कहते हैं। इधरसे ही उदित होनेवाले सूर्यदेवकी समस्त प्रजा, धर्मज्ञ ऋषि, सिद्ध महात्मा तथा साध्य देवता उपासना करते हैं। 'समस्त प्राणियोंके उपर प्रभूत्व रखनेवाले धर्मज्ञ राजा यम इस दक्षिण दिशाका आश्रय लेकर रहते हैं। इसमें मरे हुए प्राणी ही जा सकते हैं। 'प्रेतराजका यह निवासस्थान अत्यन्त समृद्धिशाली, परम पवित्र, तथा देखनेमें अद्भुत है। राजन्। इसका नाम संयमन (या संयमनीपुर) है। 'राजन्! जहां जाकर भगवान् सूर्य सत्यसे प्रतिष्ठित होते हैं, उस पर्वतराजको मनीषी पुरूष अस्ताचल कहते हैं। गिरि राज अस्ताचल और महान जलराशि से भरे हुए समुद्र में रहकर राजा वरूण समस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं। 'महाभाग! यह अत्यन्त प्रकाशमान महामेरू पर्वत दिखायी देता है, जो उत्तर दिशा को उभ्दासित करता हुआ खड़ा है। इस कल्याणकारी पर्वत पर ब्रह्मदेवताओं की ही पहुंच हो सकती है। इसी पर ब्रह्माजी की सभा है, जहां समस्त प्राणियों के आत्मा ब्रह्मा स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों की सृष्टि करते हुए नित्य निवास करते हैं। जिन्हें ब्रह्माजीका मानसपुत्र बताया जाता है और जिनमें दक्षप्रजापति का स्थान सातवां है। उन समस्त प्रजापतियों का भी यह महामेरू पर्वत ही रोग-शोक से रहित सुखद स्थान है 'तात! वसिष्ठ आदि सात देवर्षि इन्हीं प्रजापति में लीन होते और पुनः इन्हीं से प्रकट होते हैं। 'युधिष्ठिर! मेरू का वह उत्तम शिखर देखो, जो रजोगुणरहित प्रदेश है, वहां अपने आप में तृप्त रहने वाले देवताओं साथ पितामह ब्रह्मा निवास करते हैं। 'जो समस्त प्राणियों की पंचभूतमयी अक्षय उपादान हैं, जिन्हें ज्ञानी पुरूष अनादि अनन्त दिव्य-स्वरूप परम प्रभु नारायण कहते हैं, उनका उत्तम स्थान उस ब्रह्मालोक से भी ऊपर प्रकाशित हो रहा है। देवता भी उन सर्वतेजोमय शुभस्वरूप भगवान का सहज ही दर्शन नहीं कर पाते। राजन्! परमात्मा विष्णु का वह स्थान सूर्य और अग्नि से भी अधिक तेजस्वी है और अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होता है। देवताओं और दानवों के लिये उसका दर्शन अत्यन्त कठिन है । 'तात! पूर्व दिशा में मेरू पर ही भगवान नारायण का स्थान सुशोभित हो रहा है, जहां सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी तथा सबके उपादान कारण स्वयंभू भगवान् विष्णु अपने उत्कृष्ट तेजसे सम्पूर्ण भूतोंको प्रकाशित करते हुए विराजमान होते हैं। वहां यत्नशील ज्ञानी महात्माओंकी ही पहुंच हो सकती है। उस नारायण धाममें ब्रह्मार्षियोंकी भी गति नहीं है। फिर महर्षि तो वहां जा ही कैसे सकते हैं। पाण्डुनन्दन! सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थ भगवान् के निकट जाकर अपना तेज खो बैठते हैं-उनमें पूर्ववत् प्रकाश नहीं रह जाता है। 'साक्षात् अचिन्त्यस्वरूप भगवान् विष्णु ही वहां विराजित होते हैं। यत्नीशील महात्मा भक्तिके प्रभावसे वहां भगवान् नारायणको प्राप्त होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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