महाभारत वन पर्व अध्याय 157 श्लोक 44-64

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सप्‍तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्‍याय: वन पर्व (जटासुरवध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 44-64 का हिन्दी अनुवाद

आज निश्चय ही तेरी आयु पूरी हो चुकी हैं, तभी तो अद्भुत कर्म करनेवाले कालने तुझे इस प्रकार द्रौपदीके अपहरणकी बुद्धि दी है। कालरूपी डोरेसे लटकाया हुआ वंशीका कांटा तूने निगल लिया है। तेरा मुंह जलकी मछलीके समान उस कांटेमें गुंथ गया हैं, अतः अब तू कैसे जीवन धारण करेगा? जिस देशकी ओर तू प्रस्थित हुआ है और जहां तेरा मन पहलेसे ही जा पहुंचा है, वहां तब तू न जा सकेगा। तुझे तो बक और हिडिम्बके मार्गपर जाना है,। भीमसेनके ऐसा कहनेपर वह राक्षस भयभीत हो गया उन सबको छोड़कर कालकी प्रेरण युद्धके लिये उद्यत हो गया। उस समय रोषसे उसके ओठ फड़क रहे थे। उसने भीमसेनको उतर देते हुए कहा- ओ पापी! मुझे दिग्भ्रम नहीं हुआ था। मैंने तेरे ही लिये विलम्ब किया था। तूने जिन-जिन राक्षसोंको युद्धमें मारा है, उन सबके नाम मैंने सुने हैं। आज तेरे रक्तसे ही मैं उनका तर्पण करूंगा। राक्षसके ऐसा कहनेपर भीमसेन अपने मुखके दोनों कोने चाटते हुए कुछ मुस्करातेसे प्रतीत हुए फिर क्रोधसे साक्षात् काल और यमराजके समान जान पड़ने लगे। रोशसे उनकी आंखे लाल हो गयी थीं और खड़ा रह, खड़ा हर' कहते हुए ताल ठोंककर राक्षसकी ओर दृष्टि गड़ाये उसपर टूट पड़े। राक्षस भी उस समय भीमसेनको युद्धके लिये उपस्थित देख बार-बार मुंह फैलाकर मुंहके दोनों कोने चाटने लगा और जैसे बलिराजा वज्रधारी इन्द्रपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार कुपित हो उसने भीमसेनपर धावा किया। भीमसेन भी स्थिर होकर उससे युद्धके लिये खड़ेहो गये और वह राक्षस भी निश्चित हो उनके साथ बाहु-युद्धकी इच्छा करने लगा। उस समय उन दोनोंमें बड़ा भयंकर बाहु-युद्ध होने लगा। यह देख माद्री-पुत्र नकुल और सहदेव अत्यन्त क्रोधमें भरकर उसकी ओर दौड़े। परंतु कुन्तीकुमार भीमसेनने हंसकर उन दोनोंको रोक दिया और कहा- में अकेला ही इस राक्षसके लिये पर्याप्त हूं। तुमलोग चुप-चाप देखते रहो'। फिर वे युधिष्ठिरसे बोले- महाराज! मैं अपनी, सब भाइयोंकी, धर्मकी, पुण्य कर्मोंकी तथा यज्ञकी शुपथ खाकर कहता हूं, इस राक्षसको अवश्य मार डालूंगा'। ऐसा कहकर वे दोनों वीर राक्षस और भीम एक दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए बाहोंसे बाहें मिलाकर गुथ गये। भीमसेन तथा राक्षस दोनोंमें देवताओं और दानवोंके समान युद्ध होने लगा। दोनों ही रोष और अमर्शमें भरकर एक दूसरेपर प्रहार करने लगे। दोनोंका बल महान् था। वे गर्जते हुए दो मेघोंकी भांति सिंहनाद करके वृक्षोंको तोड़-तोड़कर परस्पर चोट करते थे। बलवानोंमें श्रेष्ठ वे दोनों वीर अपनी जांघोंके धक्केसे बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ डालते थे और परस्पर कुपित हो एक दूसरेको मार डालनेकी इच्छज्ञ रखते थे। जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी इच्छावाले दो भाई बालि और सुग्रीवमें भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार भीमसेन और राक्षसमें होने लगा। उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध उस वनके वृक्षसमूहोंके लिये महान् विनाशकारी सिद्ध हुआ। वे दोनों बड़े-बड़े वृक्षोंको हिला-हिलाकर बार-बार विकट गर्जना करते हुए दो घड़ीतक एक दूसरे पर प्रहार करते रहे। भारत! जब उस प्रदेशके सारे वृक्ष गिरा दिये गये, तब एक दूसरेका वध करने की इच्छासे उन महाबली वीरोंने वहां ढेर-की-ढेर पड़ी हुई सैंकड़ों शिलाएं लेकर दो घड़ीत कइस प्रकार युद्ध किया, मानो दो पर्वतराज बड़े-बड़े मेघ खण्ड़ोद्वारा परस्पर युद्ध कर रहे हों। वहां की शिलाएं विशाल और अत्यन्त भयंकर थी। वे देखनेमें महान् वेगशाली वज्रोंके समान जान पड़ती थी। अमर्शमें भरे हुए वे दोनों योद्धा उन्हीं शिलाओंद्वारा एक दूसरोंको मारने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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