महाभारत वन पर्व अध्याय 147 श्लोक 21-34

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सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद

फिर तो उनकी भौंहे तन गयी, आंखे फटी-सी रह गयी, मुखमण्डलमें भ्रुकुटी स्पष्ट दिखायी देने लगी और उनके सारे अंग पसीनेसे तर हो गये। फिर भी भीमसेन हनुमान् जीकी पूंछको किचिंत भी हिला न सके। यद्यपि श्रीमान् भीमसेन उस पूंछको उठानेमें सर्वथा समर्थ थे और उसके लिये उन्होंने बहुत प्रयत्न भी किया, तथापि सफल न हो सके। इससे उनका मुंह लज्जासे झुक गया और वे कुन्तीकुमार भीम हनुमान् जीके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए खड़े होकर बोले-'कपिप्रवर! मैंने जो कठोर बातें कही हों; उन्हें क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न होइये। 'आपस्द्फा कोई सिद्ध हैं या देवता ? गन्धर्व हैं या गुह्यक ? मैं परिचय जाननेकी इच्छासे पूछ रहा हूं। बतलाइये, इस प्रकार वानरका रूप धारण करनेवाले आप कौन हैं ? 'महाबाहो! यदि कोई गुप्त बात न हो और वह मेरे सुनने योग्य हो, तो बताइये। अनघ! मैं आपकी शरणमें आया हूं और शिष्यभावसे पूछता हूं। अतः अवश्‍य बतानेकी कृपा करें। हनुमान् जी बोले- शत्रुदमन पाण्डुनन्दन! तुम्हारे मनमें मेरा परिचय प्राप्त करनेके लिये जो कौतूहल हो रहा है, उसकी शान्तिके लिये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनो। नयन भीम! मैं वानरश्रेष्ठ केसरीके क्षेत्रमें जगत् के प्राणस्वरूप वायुदेवसे उत्पन्न हुआ हूं। मेरा नाम हनुमान् वानर है। पूर्वकालमें सभी वानरराज और वानरयूथपति, जो महान् पराक्रमी थे, सूर्यनन्दन सुग्रीव तथा इन्द्रकुमार वालीकी सेवामें उपस्थित रहते थे। शत्रुसूदन भीम! उन दिनों सुग्रीवके साथ मेरी वैसी ही प्रेमपूर्ण मित्रता थी, जैसी वायुकी अग्निके साथ मानी गयी है। किसी कारणान्तसे वालीने अपने भाई सुग्रीव को घरसे निकाल दिया, तब बहुत दिनोंतक वे मेरे साथ ऋध्यमूक पर्वतपर रहे। उस समय महाबली और दशरथनन्दन श्रीराम, जो साक्षात् भगवान् विष्णु ही थे, मनुष्यरूप धारण करके इस भूतलपर विचर रहे थे। वे अपने पिताजी आज्ञा पालन करनेके लिये पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मणके साथ दण्डकारण्यमें चले आये। धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ रघुनाथजी सदा धनुष-बाण लिये रहते थे। अनघ! दण्डकारण्यमें आकर वे जनस्थानमें रहा करते थे। एक दिन अत्यन्त बलवान् दुरात्मा राक्षसराज रावण मायासे सुवर्ण-रत्नमय विचित्र मृगका रूप धारण करनेवाले मारीच नामक राक्षसके द्वारा नरश्रेष्ठ श्रीरामको धोखेमें ड़ालकर उनकी पत्नी सीताको छल-बलपूर्वक हर ले गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्वमें लोभशतीर्थयात्राके प्रसंगमें हनुमान् जी और भीमसेन का संवादविषयक एक सौ सैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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