महाभारत वन पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-19

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त्रिंशदधिकशततम (130) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

विभिन्न तीर्थों की महिमा और राजा उशीनर की कथा का आरम्भ

लोमशजी कहते है- भारत ! यहां शरीर छूट जाने पर मनुष्‍य स्वर्गलोक में जाते है; इसलिये हजारों इस तीर्थ में मरने के लिये आकर निवास करते हैा । प्राचीन काल में पजापति दक्ष ने यज्ञ करते समय यह आर्शीवाद दिया था कि जो मनुष्‍य यहां मरेंगे, वे स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर लेंगे। यह रमणीय, दिव्य और तीव्र प्रवाह वाली सरस्वती नदी है और यह सरस्वती का विनशन नामक तीर्थ है । यह निशादराज का द्वार हैं । वीर युधिष्‍ठि‍र ! उन निशादों के ही संसर्गदोष से सरस्वती नदी यहां इसलिये पृथ्वी के भीतर प्रविष्‍ट हो गयी कि निशाद मुझे जान न सकें । यह चमसोभ्द्रेदतीर्थ है; जहां सरस्वती पुन: प्रकट हो गयी है । यहां समुद्र में मिलने वाली सम्पूर्ण पवित्र नदियां इसके सम्मुख आयी हैं । शत्रुदमन ! यह सिन्धु का महान तीर्थ है, जहां जाकर लोनामुद्र ने अपने पति अगस्त्य मुनि का वरण किया था । सूर्य के समान तेजस्वी नरेश ! यह प्रभासतीर्थ [१]प्रकाशित हो रहा है, जो इन्द्र को बहुत प्रिय है। यह पुण्यमय क्षेत्र सब पापों का नाश करने वाला और परम पवित्र है । यह विष्‍णुपद नामवाला उत्तम तीर्थ दिखायी देता है तथा वह परम पावन और मनोरम विपाशा (व्यास) नदी हैं। यहीं भगवान वसिष्‍ठ मुनि पुत्रशोक से पीड़ि‍त हो अपने शरीर को पाशों से बांधकर कूद पडे थे, परंतु पुन: विपाश ( पाशमुक्त ) होकर जल से बाहर निकल आये । शत्रुदमन ! यह पुण्यमय काश्तीर मण्डल है, जहां बहुत से महर्षि‍ निवास करते हैं । तुम भाइयों सहित इसका दर्शन करो । भारत ! यह वहीं स्थान है, जहां उत्तर के समस्त ऋषि‍, नहुश कुमार ययाति, अग्नि और काश्यप का संवाद हुआ था । महाराज ! यह मानसरोवर का द्वार प्रकाशित हो रहा है। इस पर्वत के मध्यभाग में परशुरामजी ने अना आश्रम बनाया था । युधिष्‍ठि‍र ! परशुरामजी सर्वत्र विख्यात हैं । वे सत्यपराक्रमी हैं । उनके इस आश्रम का द्वार विदेह देश के उत्तर है। यह बवंडर (वायु का तुफान) भी उनके इस द्वार का कभी उल्लंघन नहीं कर सकता (फिर औरो की तो बात ही क्या है) नरश्रेष्‍ट ! इस देश में दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि यहां निवास करनेवाले साधक को युग के अन्त में पार्षदो तथा पार्वती सहित इच्छानुसार रुप धारण करने वाले भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस सरोवर के तट पर चैत्र मास में कल्याणमयीर याजक पुरुष अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा परिवार सहित पिनाकधारी भगवान शिव की अराधना करते है । इस तालाब में श्रद्धापूर्वक स्नान एवं आचमन करके पाप मुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकों में जाता है; इसमें संशय नहीं है । यह सरोवर उज्जानक नाम से प्रसिद्ध हैं। यहां भगवान स्कन्द तथा अरुन्धती सहित महर्षि‍ वसिष्‍ठ ने साधना करके सिद्धि एवं शान्ति प्राप्त की है । यह कुशवान नामक हृद है, जिसमें जिसके विषय में यह सुन रक्खा है कि वह योग सिद्धि का संक्षि‍प्त स्वरुप है- जिसके दर्शनमात्र से समाधिरुप फल प्राप्ति हो जाती है, उस भृगुतुंग नामक महान पर्वत का अब तुम दर्शन करोगे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रभास’ की जगह ‘इाटक’ पाठभेद भी मिलता हैं ।

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