महाभारत मौसल पर्व अध्याय 8 श्लोक 16-27

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अष्‍टम (8) अध्याय: मौसल पर्व

महाभारत: मौसल पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद

जब मैं उस घटना का चिन्‍तन करता हूँ तब बारंबार मेरा हृदय विदीर्ण होने लगता है ।ब्रह्मन ! पंजाब के अहीरों ने मुझसे युद्ध ठानकर मेरे देखते-देखते वृष्णि वंश की हजारों स्त्रियों का अपहरण कर लिया । मैंने धनुष ले कर उनका सामना करना चाहा परंतु मैं उसे चढा न सका । मेरी भुजाओं में पहले-जैसा बल था वैसा अब नहीं रहा ।महामुने ! मेरा नाना प्रकार के अस्‍त्रों का ज्ञान विलुप्‍त हो गया । मेरे सभी बाण सब ओर जाकर क्षणभर में नष्‍ट हो गये ।जिनका स्‍वरूप अप्रमेय है, पीताम्‍बरधारी, श्‍यामसुन्‍दर तथा कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, जो महातेजस्‍वी प्रभु शत्रुओं की सेनाओं को भस्‍म करते हुए मेरे रथ के आगे-आगे चलते थे, उन्‍हीं भगवान अच्‍युत को अब मैं नहीं देख पाता हूँ ।साधुशिरोमणे ! जो पहले स्‍वयं ही अपने तेज से शत्रुसेनाओं को दग्‍ध कर देते थे, उसके बाद मैं गाण्‍डीव धनुष से छूटे हुए बाणोद्वारा उन शत्रुओं का नाश करता था, उन्‍हीं भगवान को आज न देखने के कारण मैं विषाद में डूबा हुआ हूँ । मुझे चक्‍कर-सा आ रहा है ।मेरे चित्त में निर्वेद छा गया है । मुझे शान्ति नहीं मिलती है । मैं देवस्‍वरूप, अजन्‍मा, भवान देवकीनन्‍दन वासुदेव वीर जनार्दन के बिना अब जीवित रहना नहीं चाहता ।सर्वव्‍यापी भगवान श्रीकृष्‍ण अन्‍तर्धान हो गये, यह बात सुनते ही मुझे सम्‍पूर्ण दिशाओं का ज्ञान भूल जाता है । मेरे भी जाति-भाइयों का नाश तो पहले ही हो गया था, अब मेरा पराक्रम भी नष्‍ट हो गया; अत: शून्‍यहृदय होकर इधर-उधर दौड़ लगा रहा हूँ । संतों मेंश्रेष्‍ठ महर्षे ! आप कृपा करके मुझे यह उपदेश दें कि मेरा कल्‍याण कैसे होगा ? ।व्‍यासजी बोले – कुन्‍तीकुमार ! वे समस्‍त यदुवंशी देवताओं के अंश थे । वे देवाधिदेव श्रीकृष्‍ण के साथ ही यहाँ आये थे और साथ ही चले गये । उनके रहने से धर्म की मर्यादा के भंग होने का डर था; अत: भगवान श्रीकृष्‍ण ने धर्म-व्‍यवस्‍था की रक्षा के लिये उन मरते हुए यादवों की उपेक्षा कर दी ।कुरूश्रेष्‍ठ ! वृष्णि और अन्‍धकवंश के महारथी ब्राह्मणों के शाप से दग्‍ध होकर नष्‍ट हुए हैं ; अत: तुम उनके लिये शोक न करों । उन महामनस्‍वी वीरों की भवितव्‍यता ही ऐसी थी । उनका प्रारब्‍ध ही वैसा बन गया था । यद्यपि भगवान श्रीकृष्‍ण उनके संकट को टाल सकते थे तथापि उन्‍होंने इसकी उपेक्षा कर दी । श्रीकृष्‍ण तो सम्‍पूर्ण चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकों की गति को पलट सकते हैं, फिर उन महामनस्‍वी वीरों को प्राप्‍त हुए शाप को पलट देना उनके लिये कौन बड़ी बात थी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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