महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 68 श्लोक 1-17

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अष्‍टषष्टितम (68) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:अष्‍टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

राजा भरत का चरित्र नारद जी कहते हैं – सृंजय ! दुष्‍यन्‍तपुत्र राजा भरत की भी मृत्‍यु सुनी गयी है, जिन्‍होंने शैशवावस्‍था में ही वन में ऐसे-ऐसे कार्य किये थे, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुष्‍कर हैं । बलवानभर बाल्‍यावस्‍था में ही नखों और दाढों से प्रहार करने वाले बरु के समान सफेद रंग के सिंहों को अपने बाहुबल के बेग से पराजित एवं निर्बल करके उन्‍हें खींच लाते और बांध देते थे । वे अत्‍यन्‍त भयंकर और क्रूर स्‍वभाव वाले व्‍याघ्रों का दमन करके उन्‍हें अपने वश में कर लेते थे । मैनसिल के समान पीली और लाक्षाराशि से संयुक्‍त लाल रंग की बडी-बडी शिलाओं को वे सुगमतापूर्वक हाथ से उठा लेते थे । अत्‍यन्‍त बलवान्‍ भरत सर्प आदि जन्‍तुओं को और सुप्रतीक जाति के गजराजों के भी दांत पकड लेते और उनके मुख सुखाकर उन्‍हें विमुख करके अपने अधीन कर लेते थे । भरत का बल असीम था । वे बलवान भैंसों और सौ-सौ गर्वीले सिंहों को भी बलपूर्वक घसीट लाते थे । बलवानसामरों, गेंडों तथा अन्‍य नाना प्रकार के हिंसक जन्‍तुओं को वे वन में बांध लेते और उनका दमन करते-करते उन्‍हें अधमरा करके छोडते थे । उनके इस कर्म ब्राह्मणों ने उनका नाम सर्वदमन रख दिया । माता शकुन्‍तला ने भरत को मना किया कि तू जंगली जीवों को सताया न कर । पराक्रमी महाराज भरत जब बडे हुए, तब उन्‍होंने यमुना के तट पर सौ, सरस्‍वती के तट पर सौ और गंगाजी के किनारे चार सौ अश्‍वमेघ यज्ञों का अनुष्‍ठान करके पुन: उत्‍तम दक्षिणाओं से सम्‍पन्‍न एक हजार अश्‍वमेघ और सौ राजसूय महायज्ञों द्वारा भगवान्‍ का यजन किया ।इसके बाद भरत ने अग्निष्‍टोम और अति‍रात्र याग करके विश्‍वजित्‍ नामक यज्ञ किया । तत्‍पश्‍चात्‍ सर्वथा सुरक्षित दस लाख वाजपेय यज्ञों द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष की आराधना करके महायशस्‍वी शकुन्‍तला कुमार राजा भरत ने धन द्वारा ब्राह्मणों को तृप्‍त करते हुए आचार्य कण्‍व को विशुद्ध जाम्‍बूनद सुवर्ण के बने हुए एक हजार कमल भेंट कये । इन्‍द्र आदि देवताओं ने वहां ब्राह्मणों के साथ मिलकर राजा भरत के यज्ञ में सोने के बने हुए सौ व्‍याम (चार सौ हाथ) लंबे सुवर्णमय यूप का आरोपण किया।शत्रुविजयी, दूसरों से पराजित होने वाले अदीनचित्‍त चक्रवर्ती सम्राट भरत ने ब्राह्मणों को सम्‍पूर्ण मनोहर रत्‍नों से विभूषित, कान्तिमान एवं सुवर्ण शोभित घोडे, हाथी, रथ, ऊँट, बकरी, भेड, दास, दासी, धन-धान्‍य, दूध देने वाली सवत्‍सा गायें, गांव, घर, खेत तथा वस्‍त्राभूषण आदि नाना प्रकार की सामग्री एवं दस लाख कोटि स्‍वर्ण मुद्राएं दी थीं । श्‍वैत्‍य सृंजय ! चारों कल्‍याणकारी गुणों में वे तुमसे बढ-चढकर थे और तुम्‍हारे पुत्र से भी अधिक पुण्‍यात्‍मा थे। जब वे भी मृत्‍यु से बच न सके, तब दूसरे कैसे बच सकते हैं ? अत: तुम यज्ञ और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो । ऐसा नारदजी ने कहा ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक अडसठवां अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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